अध्याय10 श्लोक14 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 10 : विभूति योग

अ 10 : श 14


सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥

संधि विच्छेद

सर्वम् एतत् ॠतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन् व्यक्तिम् विदुः देवा न दानवाः ॥

अनुवाद

[अर्जुन ने कहा] हे केशव! मैं आश्वस्त हूँ(पूर्ण रूप से मानता हूँ) कि आपने जो कहा वही सत्य है [और कुछ अन्य नहीं]| [मैं तों एक तुक्ष मनुष्य हूँ] आपके वास्तव स्वरूप [और गुणों को तों] देवता और दानव भी नहीं जानते |

व्याख्या

पूर्व श्लोक से आगे इस श्लोक में भी अर्जुन का श्री कृष्ण के प्रति समर्पण का भाव प्रकट हो रहा है| ९ अध्यायों के वार्तालाप और श्री कृष्ण द्वारा अदभुत रहस्यों और अपनी गुणों के वर्णन से अर्जुन को यह पूर्ण आभाष हो गया कि श्री कृष्ण जो मनुष्य के रूप में उसके सामने खड़े हैं स्वयं परमात्मा है|
यह सोचकर अर्जुन के मन में कई प्रकार के भाव उठते हैं, एक तरफ वह खुद को सौभाग्य शाली मानता है लेकिन दूसरी तरफ यह ग्लानि कि सत्य जानने में उसे इतनी देर हो गई| अर्जुन के यह भाव अगले अध्याय में पूर्ण रूप से प्रकट होते हैंजहाँ अर्जुन ने यह कहा

“आपके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानने के कारण, आपको अपने मित्र समझकर मैंने आपको हे कृष्ण, हे यादव आदि संबोधनो से संबोधित किया| विनोद में, विश्राम की अवस्था में, भोजन आदि के समय, कभी एकांत और कभी लोगों के सम्मुख मैंने आपको [साधारण मनुष्य के समान संबोधित करके] आपका अपमान किया| हे अच्युत(परमात्मा) मेरी ढीढता एक लिए मुझे क्षमा करें|”
--अध्याय ११ श्लोक ४२-४३

लेकिन फिर इस श्लोक में अर्जुन ने पवित्र हृदय से यह स्वीकार किया कि एक मनुष्य होने के करने उसके समझने की शक्ति सीमित है| स्हरि कृष्ण के वास्तविक स्वरूप और गुणों को तों देवता और दानव भी नहीं जानते फिर एक साधारण मनुष्य की क्या बिसात |
इस प्रकार इन श्लोकों में अर्जुन के भक्ति, विस्मय और ग्लानि भरी भावनाएं प्रकट हो रही हैं|