Chapters - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

यह अध्याय कौरवों के पिता और कुरु वंश के वर्त्तमान राजा धृष्टराष्ट्र के बीच संवाद से आरम्भ होता है | धृष्टराष्ट्र ने संजय से कुरुक्षेत्र में हो रही गतिविधियों के बारे में पूछा और संजय ने बताना शुरू किया | यह ज्ञात हो की संजय के पास महर्षि व्यास द्वारा दी गयी दिव्य दृष्टि की शक्ति थी जिससे वह कुरुक्षेत्र में हो रही किसी भी गतिविधि को देश और सुन सकते थे | जैसा शास्त्रों में वर्णित है , महर्षि व्यास दिव्य दृष्टि धृष्टराष्ट्र को देना चाहते थे ताकि धृष्टराष्ट्र कुरुक्षेत्र में हो रही घटनाओं को देख सकें | लेकिन धृष्टराष्ट्र ने यह कहते हुए इनकार कर दिया की जब वह अपने बच्चों को बड़ा होते, खेलते कूदते नहीं देख सके तो अब लड़ते मरते क्यों देखना | धृष्टराष्ट्र ने तब श्री वेद व्यास से दिव्य दृष्टि की वह शक्ति अपने मित्र और सारथी संजय को देने का अनुरोध किया | धृष्टराष्ट्र के अनुरोध पर महर्षि व्यास ने दिव्य दृष्टि की वह शक्ति संजय को प्रदान की |

इस अध्याय के पहले ११ श्लोकों में पांडव और कौरवों की सेना का वर्णन है | दुर्योधन की शब्दों में [पांडवो और कौरवों की मुख्य योद्धाओ और उनके बलाबल का सारांश है |

युद्ध की शुरुआत कौरवों के सेनापति भीष्म पितामह द्वारा शंखनाद से होता है | भीष्म के बाद दोनों सेनाओ की सभी योद्धाओं ने फिर अपने अपने संख बजाये | चारो तरफ ढोल नगाड़े बज उठे और पूरा कुरुक्षेत्र शोर से भर गया | युद्ध अब किसी भी समय शुरू होने वाला था , की तब अर्जुन के मन में दोनों सेनाओ के निरिक्षण की इक्षा जागृत हुई | वह यह देखना चाहता था की दोनों सेनाओं में कौन कौन युद्ध करने आये हैं और उसका किस किस से सामना होगा |
अर्जुन ने श्री कृष्ण से रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले जाने का आग्रह किया | श्री कृष्ण रथ को दोनों सेनाओ में मध्य ले गए | अर्जुन ने अपने नेत्र उठाकर विपक्ष की सनाओ की ओरे देखा, तो क्या देखता है-उसके अपने पितामह भीष्म, गुरु द्रोण , कुल गुरु कृपाचार्य, मित्र, सम्बन्धी और चचेरे भाई कौरव खड़े हैं | वह जैसे नींद से जागा हो | उसके मन में तूफान शुरू हो गए | क्या अपने पितामह, गुरु, कुलगुरु, मित्रों और सम्बन्धियों को मारकर युद्ध जीतना पड़ेगा ? उसके रोंगटे खड़े होने लगे, मुंह सूखने लगा और पूरा शरीर पसीने से भर गया | वह ग्लानि से भर गया और युद्ध के पुरे औचित्य को लेकर भ्रमित हो गया | उसे समझ में नहीं आया की ऐसे समय में क्या अच्छा है क्या नहीं | उसने युद्ध करने से इनकार कर दिया |

अध्याय १८ के बाद श्रीमद भगवद गीता का यह दूसरा सबसे बड़ा अध्याय है | अगर इस अध्याय को श्रीमद भगवद गीता का सारांश कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी | इस अध्याय में श्रीमद भगवद गीता के लगभग सभी मुख्य सिद्धांतों का वर्णन है | लेकिन इस अध्याय में सबसे महत्वपूर्ण है सांख्य सिद्धांत | सांख्य का सिद्धांत सनातन धर्म की सबसे मूल सिद्धांतों में से एक है और बहुत काम ऐसे ग्रन्थ है जिसमे सांख्य सिद्धांत का वर्णन है | सांख्य की प्रमुखता के कारण इस अध्याय को "सांख्य योग" भी कहा जाता है | हालांकि भक्ति वेदांत के संस्थापक श्री प्रभुपाद की पुस्तक में इस अध्याय को श्रीमद भगवद गीता का सारांश कहा गया है |

इस अध्याय के पहले १० श्लोकों में अर्जुन के भ्रम का ही वर्णन है | श्री कृष्ण ने एक बार अर्जुन को समझाने का प्रयास किया की युद्ध का मैदान युद्ध की परिभाषा तय करने का स्थान नहीं और ऐसे समय में उसका युद्ध न करने के निर्णय उचित नहीं | लेकिन अर्जुन का भ्रम बहुत गहरा और सांसारिक रूप से वास्तविक था | दूसरी बात की अर्जुन अपनी भावनाओं के प्रति ईमानदार था | अपने भ्रम को न छुपाते हुए अर्जुन ने अपने आप को श्री कृष्ण की शरण में सौंप दिया और आग्रह किया की अब वही मार्गदर्शन करें | श्री कृष्ण ने तब अर्जुन को उसके सभी भ्रम को दूर करने के लिए ही नहीं बल्कि जीवन, कर्त्तव्य और ब्रम्हांड की सभी गूढ़ रहस्यों का वर्णन किया |

श्लोक #१२ से लेकर श्लोक #३९ तक सांख्य योग का वर्णन है | #१२ से #३० तक आत्मा और जीवन से सम्बंधित रहस्य बताये गए हैं | #३१ से #३८ तक कर्त्तव्य की परिभाषा और उसकी उपयोगिता का वर्णन है | श्लोक #४० से आगे श्री कृष्ण ने योग के सिद्धांतों का वर्णन किया जिसमे सबसे प्रथम ज्ञान योग(#४२-#४६ ), फिर कर्म योग (#४७४७-#५० ) तथा बुद्धि योग (५१-५३) का वर्णन है | अगले आठ श्लोकों में सिद्धि प्राप्ति और सिद्धि प्राप्त स्थिप्राज्ञ मनुष्य की पहचान बताई गयी है | गयी है | उसके आगे के श्लोकों के शुद्ध कर्म में बाधा उत्पन्न करने वाले तत्वों उससे बचने के उपयों का वर्णन है |


  इस अध्याय में कर्मयोग और इसके विभिन्न तत्वों की विस्तृत व्याख्या है| अध्याय का आरम्भ अर्जुन के प्रश्न से है| पिछले अध्याय के अंतिम भाग में भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान की श्रेष्ठता का वर्णन किया जिससे अर्जुन के मन में संदेह हुआ कि जब ज्ञान ही महान है तों मनुष्य कर्म में लिप्त होकर क्यों पाप का भागी बने| इसके उत्तर में भगवान ने अर्जुन को यह स्पस्ट किया कि ज्ञान स्वयं कर्म को त्यागने का मार्ग नहीं| कर्म के बिना ज्ञान तों क्या कुछ भी संभव नहीं|  कर्म प्रकृति का मूल है और कोई भी जीव एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता(श्लोक #५) . अतः किसी के लिए कर्म को त्यागने का तों कोई विकल्प है ही नहीं|कर्म के बिना तो मनुष्य की दिनचर्या भी सम्भव नहीं |

इसके आगे के श्लोकों में भगवान कृष्ण ने कर्म की विविधताएं बताई और कर्म करने की उस विधि की व्याख्या की जो मनुष्य के लिए मोक्ष का साधन बनता है | इस अध्याय में एक अति महत्वपूर्ण प्रश्न का भी उत्तर है | देवता क्या है और उनकी साधना क्यों आवश्यक है, इसकी व्याख्या की गयी है (श्लोक ~ १० -१३). इसके आगे के श्लोकों में जीवों द्वारा किये जाने वाले कर्म का भौतिक जगत पर निर्भरता का वर्णन है | इसके आगे कर्त्तव्य की व्याख्या और इसकी उपयोगिता का वर्णन है |कर्त्तव्य जीवों द्वारा किये गए कर्म का शुद्ध रूप है| अगर एक मनुष्य सिर्फ ईमानदारी से अपने कर्त्तव्य का पालन ही कर ले तो उसके लिए मुक्ति के द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं | श्लोक २०-२४ तक समाज के उच्च स्थान पर स्थित मनुष्य द्वारा शुद्ध कर्म किये जाने की आवश्यकता का वर्णन है | भगवान् श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया की समाज का उत्थान और पतन में समाज के उच्च स्थान पर स्थापित लोगों का व्यवहार बहुत बड़ी भूमिका निभाता है क्योंकि समाज के लोग समाज के नेता का ही अनुसरण करते हैं |

समाज में बुद्धिमान और बुद्धिहीन दोनों प्रकार के लोग होते हैं ऐसे में बुद्धिमान लोगों पर समाज का अतिरक्त भार आता है और एक बुद्धिमान मनुष्य को इसका आभाष होना चाहिए | श्लोक २५-२९ तक इस विषय पका वर्णन है | श्लोक ३० से आगे शुद्ध कर्म करने के उपायों का वर्णन है | श्लोक ३५ में एक और महत्वपूर्ण तथ्य का उल्लेख है | भगवान् श्री कृष्णा ने यह सलाह दी की मनुष्य को अपने स्वभाव के अनुसार ही कर्म करना चाहिए | दूसरों को देखकर कुछ भी नहीं करने लग जाना चाहिए | श्लोक ३६-४२ तक में यह वर्णित है की कैसे इन्द्रियां कर्म के बाधा डालती हैं और कैसे मनुष्य को उसपर विजय प्राप्त करना चाहिए

ज्ञान की श्रेष्ठता और उसकी उपयोगिता का वर्णन किये जाने के कारण इस अध्याय का नाम ज्ञान योग कहा गया है | अध्याय २ के अंतिम भाग में ही श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया था ज्ञान के सामान पवित्र करने वाला कोई और दूसरा साधन नहीं |

इस अध्याय के आरम्भ में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा की उन्होंने योग के रहस्यों को सबसे पहले विवासन (सूर्य देव ) को कहा था | इसपर अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ और अर्जुन ने कहा की आप तो मेरे युग में पैदा हुए और सूर्य देव तो आदि है फिर अपने सूर्य देव को योग का ज्ञान कैसे दिया ? इसपर श्री कृष्ण ने अर्जुन को जन्मो का रहस्य बताया | उन्होंने समझाया की कई भौतिक शरीरों को धारण कर चुके हैं, अंतर इतना है की मैं अपने सभी भौतिक शरीरों में बिताये जीवन को जानता हूँ परन्तु तुम नहीं जानते |

इसी अध्याय में श्रीमद भगवद गीता का सबसे प्रसिद्ध श्लोक "यदा यदा ही धर्मस्य। .. " का उल्लेख है | श्लोक #६-८ में भगवान श्री कृष्ण ने अवतार की प्रक्रिया और उसके उद्देश्य का वर्णन किया है | उन्होंने यह घोषणा की की जब भी इस लोक में धर्म की हानि एक स्तर से ज्यादा होती है स्वयं इस लोक में आते हैं और धर्म को पुनः स्थापित करते हैं |

श्लोक १२ से २१ तक कर्म और उसके प्रकारों का वर्णन है | इन्द्रियों के वशीभूत मनुष्य विभिन्न प्रकार के कर्म करता है और फिर विभिन्न गंतव्यों को पहुँचता है | सभी कर्मों में वह कर्म जो मनुष्य को जन्मो के आवागमन से मुक्त करें वह श्रेष्ट है और वह सभी कर्म यज्ञ की श्रेणी में आते हैं | यज्ञ रूपी कर्म के प्रकार श्लोक #२५ से ३२ तक वर्णित है | श्लोक #३३ में यज्ञों की तुलना है | श्लोक #३४ से आगे ज्ञान की व्याख्या और उसकी उपयोगिता का वर्णन है | ज्ञान मनुष्य के लिए सबसे पवित्र करने वाला है और ज्ञान की अग्नि में जलकर ही मनुष्य के सभी पाप नष्ट होते हैं और उसका कर्म शुद्ध होता है |


इस अध्याय के सनातन धर्म के अति महत्वपूर्ण विषय सन्यास की सही व्याख्या और उसको साधने के उपायों का वर्णन है | समाज में सन्यास के विषय में कई भ्रांतियां है | कई लोग सभी कर्मो और समाज के त्याग करने को सन्यास मानते हैं जो उचित नहीं है | अध्याय ३ में पहले ही वर्णित किया जा चूका है कि किसी के लिए भी कर्म ता त्याग तो सम्भव ही नहीं क्यों न चाहते हुए भी प्रत्येक जीव को कर्म तो करना ही पड़ता है |

इस अध्याय का प्रारम्भ अर्जुन के प्रश्न से है | अर्जुन ने सन्यास के विषय पर ही प्रश्न किया और तब श्री कृष्ण ने सन्यास की सही व्याख्या की | कर्मो का त्याग सन्यास नहीं बल्कि वास्तव में कर्म के फलों की इक्षा का त्याग सन्यास है | अतः एक गृहस्थ जो बिना किसी स्वार्थ के अपने परिवार, समाज और देश के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करता है वह हर हाल में एक सन्यासी ही है | और ऐसा कर्म जो स्वार्थ से मुक्त हो लिए कल्याणकारी होता है और इस प्रकार कर्म योग कर्म के त्याग(कर्म सन्यास ) से श्रेष्ट है |

इस अध्याय में अधिकतर श्लोक कर्म की उस अवश्था को प्राप्त करने जिससे सन्यास की सिद्धि प्राप्त हो का वर्णन है |


यह अध्याय अष्टांग योग की सबसे मूल श्रोतों में से एक है | अष्टांग योग की तीन सबसे उच्चे विभागों, प्राणायाम, ध्यान और समाधी की व्याख्या इस अध्याय में की गयी है | अष्टांग योग की इन तीन भागों को विवेकानंद सहित कई दूसरे विद्वान "राजयोग" कहकर पुकारते है अतः इस अध्याय का नाम राज योग है | हालांकि भक्ति वेदांत के श्री प्रभुपाद इस अध्याय का नामकरण सांख्य योग के रूप में करते हैं | वह शायद इसलिए कि इस अध्याय में अष्टांग योग के शुद्ध सिद्धांतों का वैज्ञानिक वर्णन है |
श्लोक १-४ में सन्यास और योग के सिद्धांतों के मूल में स्थित समानता का वर्णन है |
श्लोक ५-१० में मस्तिष्क के अनिश्चित चंचल स्वभाव और उसपर नियंत्रण की आवश्यकता का वर्णन है | मस्तिष्क मनुष्य में सबसे उच्च होता है और मनुष्य का उत्थान और पतन मस्तिष्क के संतुलित और असंतुलित होने पर निर्भर है | अतः मस्तिष्क को स्थिर करना बहुत आवश्यक है | श्लोक ९,१० में ज्ञान और भक्ति से मस्तिष्क को वश करने का साधन बताया गया है |
श्लोक ११-१७ में प्राणयाम और ध्यान की साधना करने की व्यावहारिक विधि का वर्णन है |
श्लोक २३ ध्यान और समाधि की श्रेष्ठ अवस्था का वर्णन है |
श्लोक २४-३२ तक ध्यान और समाधि को प्राप्त करने के उपायों का वर्णन है | शुरू के श्लोक योग में अभ्यास की उपयोगिता और बाद के श्लोक भक्ति के द्वारा योग की साधना को सिद्ध करने की सलाह है |

योग साधना का वर्णन सुनने के बाद अर्जुन को ऐसा प्रतीत हुआ की यह साधना को कठिन है और सभी इसमें सक्षम नहीं | अगर कोई साधक असफल हो जाये तो उसकी क्या गति है ? तब श्री कृष्ण ने घोषणा की योग का मार्ग ऐसा है जिसमे किसी मनुष्य का पतन नहीं होता | कोई भी साधक सच्चे मन से श्री कृष्णा की शरण में आ जाये तो फिर आगे उसका पतन नहीं होता | और कोई साधक इस जन्म में असफल भी हो जाये तो वह अगले जन्म में उन सभी कमियों से मुक्त होता है जहाँ से उसके लिए मुक्ति के मार्ग आसान हो जाते हैं |अतः श्री कृष्ण के भक्त का कभी पतन नहीं होता |
श्लोक ४६-४७ में योग के विभिन्न मार्गों की तुलना है |

पहले ६ अध्यायों में आत्मा की मूल प्रकृति क वर्णन किया गया | आत्मा का पूर्ण ज्ञान उपासना का आधार है, जिसे कर्म के द्वारा साधा जाता है | आगे के ६ अध्यायों में ईश्वर की मूल प्रकृति का वर्णन किया गया है| ईश्वर को जानने, और उसकी उपासना और ईश्वर को प्राप्त करने का आधार भक्ति है| इस भक्ति के विषय को अध्याय १८ (श्लोक ४६-५४) में भी वर्णित किया गया है|

अध्याय ७ में भगवान श्री नारायण के गुणों और उनको प्राप्त करने के साधन का वर्णन है| सारांश में इस अध्याय में निम्न विषयों की चर्चा है

1. ईश्वर की मूल प्रकृति
2. ईश्वर की भौतिक प्रकृति माया का वर्णन
3. ईश्वर में भक्ति के द्वारा माया को भेदने का उपाय
4. विभिन्न प्रकार के भक्त
5. भक्ति में ज्ञान की श्रेष्ठता.

यह श्रीमद भगवद गीता के सबसे कठिन और महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक है और सनातन धर्म की कई महत्वपूर्ण सिधान्तों की व्याख्या करता है| अध्याय के प्रारंभ में ही अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से आध्यात्म, ब्रम्ह,कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के बारे में एक साथ प्रश्न पूछा| भगवान श्री कृष्ण ने इन सभी प्रश्नों का उत्तर दिया|  अर्जुन के एक और प्रश्न के उत्तर में भगवान श्री कृष्ण ने एक अति महत्वूपर्ण रहस्य का भी वर्णन किया| कोई भी मनुष्य अगर जीवन के अंतिम समय में भी भगवान श्री कृष्ण को याद कर ले तों उसका आने वाले जीवन सुरक्षित हो जाते हैं | लेकिन फिर भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि यह आसान नहीं| मनुष्य का अंतिम समय पहली बात तों किसी को ज्ञात नहीं, दूसरी बात मनुष्य का अंतिम समय बहुत कठिन होता है और किसी धैर्यवान के लिए भी वैसे समय में मन को स्थिर रखना कठिन होता है| इसलिए एक समझदार मनुष्य को जीवन के अच्छे समय में ही भक्ति की साधना करनी चाहिए | अभ्यास ही किसी गुण को दृढ करता है और ईश्वर में मन को स्थिर रखना ही अभ्यास से संभव है| लेकिन किसी भी अवस्था में अगर मनुष्य अपने अंतिम समय में भी श्री कृष्ण को याद कर ले तों उसका आगे का जन्म सफल अवश्य होता है| 
इस अध्याय में आगे  सृष्टि निर्माण  और सृष्टि का वर्णन है| भगवान श्री कृष्ण  

ने सृष्टि के दो विभिन्न विभागों का भी वर्णन किया| सृष्टि का एक भाग जन्म और मृत्यु के चक्र से गुजरता है, दूसरा भाग समय के बदलाव से अप्रभावित रहता है| दूसरा भाग में कई अमर लोक हैं उसमे सबसे उच्च भगवान श्री कृष्ण का अपना लोक है| एक मनुष्य को इस जीवन का उपयोंग उन अमर लोकों को प्राप्त करने का ही होना चाहिए| 

कई विद्वान इस अध्याय का नामकरण “राजविद्या” या “राजगुह्य” योग करते हैं| यह नाम वास्तव में बहुत प्रासंगिक है| इस अध्याय में श्रृष्टि निर्माण, श्रृष्टि के नियम, उसके परिचालन और ईश्वर का मौलिक प्रक्रियाओं और जीवों के बीच के गुढ रहस्यों का वर्णन है| देवताओं की क्या प्रासंगिता है और उनकी साधना का क्या फल प्राप्त होता है वह भी वर्णित है| इसके अलावा विभिन्न गुणों के मनुष्य अपने अपने गुण के अनुसार जीवन यापन करते हुए भी किस प्रकार ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं उसका भी वर्णन है|
इस अध्याय में कुल मिलाकर 34 श्लोक हैं उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:

श्लोक १-१० श्री कृष्ण द्वारा श्रृष्टि निर्माण इसके संचालन के तत्वों का वर्णन है| भगवान ने स्पस्ट किया कि वह स्वयं श्रृष्टि के मूल गुणों और उसके भौतिक, रासायनिक या जैविक नियमों के निर्मता है| इन नियमों के अधीन ही श्रृष्टि के सभी कार्यों कस संचालन होता है|

श्लोक ११ में भगवान श्री कृष्ण ने यह बताया की भौतिक जगत की विभिन्नता को देखकर मनुष्यों में ईश्वर और श्रृष्टि के उद्भव के बारे में भ्रम पैदा होता है|

श्लोक १२-१५ और २०-२५ में विभिन्न प्रकार के मनुष्यों द्वारा अपने गुण के अनुसार भिन्न भिन्न साधना पद्धति का चयन होता है| इन्ही श्लोकों में देवताओं की प्रासंगिता और इनकी साधना के फल का वर्णन है| जो मनुष्य जिस जिस देवता की साधना करते हैं उन्हें उन देवताओं का लोक प्राप्त होता है|

श्लोक १६-१९ में इस रहस्य का वर्णन है कि ब्रम्हांड का विस्तार और नान प्रकार की भौतिक वस्तुओं का श्रोत वास्तव में एक ही है और वह हैं स्वयं भगवान श्री कृष्ण|

श्लोक २६ में साधना की सरलता का वर्णन है| कोई भक्त अगर भक्ति पूर्वक कुछ जल, कुछ फूल की पत्तियां ही भगवान को समर्पित कर दे तों श्री कृष्ण उसे स्वीकार करते हैं| साधना के लिए भक्ति ज्यादा महत्वपूर्ण हैं साधन नहीं|

श्लोक २७-२९ में वर्णित है कि किस प्रकार भगवान श्री कृष्ण की अनन्य भक्ति से मनुष्य के सभी पापों का अन्त होता है और वह अंततः जन्म जरा के कोप से मुक्त होता है|
श्लोक ३०-३३ यह स्पस्ट रूप से वर्णित करता है कि ईश्वर के द्वार हर मनुष्य के लिए खुले हैं| यहाँ तक कि कोई ऐसा मनुष्य जिसने पूर्व में कुछ पाप कर्म किये हैं लेकिन अब वह अपने पाप कर्म को छोड़कर भगवान की शरण में आता है तों उसे भी भगवान श्ररण प्रदान करते हैं| भक्ति के लिए कोई उम्र या समय देर अनुपयुक्त नहीं|

और अन्त में श्लोक ३४ में यह परामर्श है कि मनुष्य को अपना मन ईश्वर में भरसक लगाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि मन के शुद्ध होने से ज्ञान के मार्ग खुलते हैं और मनुष्य के कर्म स्वयं ही शुद्ध होते हैं| इस प्रकार मन और कर्म से युक्त मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है

हालाकि यह अध्याय अपेक्षाकृत आसान अध्यायों में से एक है, लेकिन इस अध्याय में सनातन धर्म के एक अति महत्वपूर्ण सिद्धांत का वर्णन है, वह है विभूति | यह सिद्धांत इतना महत्वपूर्ण है कि इसे समझे बिना सनातन धर्म के दूसरे सिधान्तों जैसे अवतार, सृष्टि निर्माण आदि को समझना मुश्किल है|

विभूति का अर्थ होता है रूपांतर| जब कोई एक वस्तु अपने रूप या गुण का अंतर करके दूसरे वस्तुओं का निर्माण करती है तों उसे विभूति कहते हैं| अगर हम रसायन शास्त्र से इसे समझने का प्रयास करें| हम जानते हैं कि कुल मिलाकर 115-120 तत्व ही होते हैं लेकिन योगिक पदार्थों की संख्या लाखों करोडो में होती है| अर्थात कुछ मूल तत्वों से अनेको पदार्थों का निर्माण हो सकता है| यही विभूति या विभूति योग का सिद्धांत है|
हालाकि यह सिद्धांत अति व्यापक है और और वैज्ञानिक है लेकिन इसका धार्मिक विश्लेषणों में इसका अधितकतर प्रयोग ईश्वर भगवान विष्णु या भगवान श्री कृष्ण के रूपों के वर्णन में ही होता है|
भगवान श्री कृष्ण अपनी माया को संतुलित करके एक ही समय में एक से अधिक रूपों में व्याप्त हो सकते हैं| अनेक रूपों का होना माया का परिवर्तन मात्र है | ईश्वर का अवतार उसी विभूति योग की एक प्रक्रिया है|

यह अध्याय अपने आप में विशिष्ट और अदभुत है क्योंकि इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण का पूर्ण विराट रूप प्रकट हुआ है जो कहीं दूसरे ग्रन्थ में नहीं|
हालाकि भगवान विष्णु के कई रूपों का विभिन्न रूप में पुराणों में वर्णन है, श्री कृष्ण ने माता यशोदा और धृतराष्ट्र की सभा में भी अपना विराट रूप दिखाया था लेकिन भगवान का पूर्ण विश्व रूप सिर्फ इसी अध्याय में वर्णित है|

पिछले अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपनी विभूतियों का वर्णन किया कि कैसे श्री कृष्ण के साथ ही जीवित और अजीवित नाना प्रकार से विद्यमान हैं इस ब्रम्हांड में| उस वर्णन ने अर्जुन की जिज्ञासा और बढा दी| एक ही समय में श्री कृष्ण कैसे इतने रूपों में हो सकते है, उसको देखने की लालसा अर्जुन में जागृत हुई| अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से उन रूपों को प्रदर्शित करने का आग्रह किया (श्लोक#3,4)|

अर्जुन की निश्चल भक्ति से प्रसन्न श्री कृष्ण अर्जुन को अपना विश्व रूप दिखाने पर सहमत हुए| परन्तु मनुष्य की नेत्रों से ईश्वर के विश्व रूप को देख पाना संभव नहीं थे इसलिए भगवान ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान की श्लोक #8. इसके बाद भगवान ने अर्जुन को अपना विश्व रूप दिखाया | श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि यह मेरा पूर्ण रूप है इसमे वह सब कुछ है जो पहले हुए, हो रहा है और जो होने वाला है| इसमे वह सब कुछ भी है जो तुम देखना चाहते हो|

अर्जुन के सामने तब भगवान का अविश्वसनीय विश्व रूप प्रकट हुआ, वह रूप जो पहले कभी नहीं हुआ था और जिसकी कोई कल्पना तक नहीं कर सकता| पूरा ब्रम्हांड के ही स्थान पर जैसे एक ही स्थान पर सिमट गया हो| सारे नक्षत्र, सभी जीव जंतु, सभी देवता श्री कृष्ण के विश्व रूप में समाहित थे|
लेकिन जो सबसे विस्मय कारी दृश्य जो अर्जुन के सामने प्रकट हुआ वह था काल(समय) अर्जुन ने श्री कृष्ण में सभी भूतकाल,वर्तमान और भविष्य का समय प्रकट हो रहा था| हजारो लाखों जीव प्रतिपल श्री कृष्ण से उत्पन्न हो रहे थे और हजारों लाखों प्रतिपल नष्ट| कल प्रत्येक जीव को बेदर्दी से निगल रहा था| अर्जुन ने काल के मुझ में अपने सभी सगी संबंधियों, भीष्म, द्रोण, कौरव और जितने भी कुरुक्षेत्र में उपस्थित थे जाते देखा| काल हर एक चीज़ को जैसे चबाता जा रहा हो|

ऐसा भयावह दृश्य देखकर अर्जुन की दिग्धी बंध गई| अर्जुन ने ऐसे दृश्य की कभी कल्पना नहीं की थी| वह भय से कांपने लगा(Shloka#31)| इस समय अर्जुन को यह अनुभव हुआ कि जो उनके सामने खड़े हैं, वह कोई मनुष्य या देवता नहीं| अर्जुन ने अपनी पूरी जिंदगी श्री कृष्ण को अपना मित्र समझा, उनसे वैसे बातें की जैसे कोई किसी दूसरे मनुष्य, अपने मित्र से करता है| यह जानकार कि जिन्हें वह अपना मित्र समझता था वह स्वयं जगतपति, सर्वशक्तिमान परमात्मा है| अर्जुन ने तब हाथ जोड़कर श्री कृष्ण ने क्षमा मांगी कि अनजाने में उसने परमपिता परमात्मा को एक साधारण मनुष्य जानकर क्या क्या कहा और क्या व्यवहार किया|

भय से व्याकुल अर्जुन ने श्री कृष्ण से फिर उनका मनोहर चतुर्भुज रूप प्रदर्शित करने का आग्रह किया, वह रूप जो अति सुन्दार, मनोरम और भक्तों का प्रिय है| भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के निश्चल भक्ति से प्रसन्न फिर अपना चतुर्भुज रूप प्रकट किया|

इस अध्याय के अन्त में श्री कृष्ण ने फिर एक अन्य रहस्य प्रकट किया| श्री कृष्ण ने कहाँ कि उनका यह रूप कोई भी मनुष्य ज्ञान, तप या योग से नहीं देख सकता| सिर्फ उनका प्रिय भक्त ही उनके सम्पूर्ण रूप को देखने का भागी है| अतः इस अध्याय में भी भगवान श्री कृष्ण ने भक्ति का महिमा को प्रतिपादित किया|

इस अध्याय में भक्ति, भक्ति की साधना करने के विभिन्न तरीकों और भक्ति के विभिन्न अवयवों और रहस्यों का वर्णन है| इस कारण इस अध्याय का नाम “भक्ति योग” है|

धर्म का पालन करने वालों और खासकर भक्तों के लिए यह अध्याय बहुत महत्वपूर्ण है| अगर कोई साधक ईश्वर में सच्ची श्रधा रखता है और वह सिर्फ इस अध्याय का अध्ययन की कर ले तों उसके लिए कुछ जानने की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती|

इस अध्याय में कुल २० श्लोक हैं|
श्लोक १-८ में सनातन धर्म ही नहीं बल्कि सभी धर्मो में होने वाले सबसे बड़े बहस का सटीक और तार्किक उत्तर है, वह प्रश्न है मूर्ति पूजा के विषय में उठने वाले प्रश्न| हम अक्सर देखते हैं कि मूर्ति पूजा पर दूसरे धर्म के ही नहीं बल्कि कई हिंदू भी यह प्रश्न पूछते हैं कि कौन सी साधना सही हैं और क्यों? क्या ईश्वर की साकार साधना उत्तम है या निराकार ईश्वर की साधना? अर्जुन ने इस अध्याय के पहले ही श्लोक में एकदम यही प्रश्न पूछा| उसका जवाब भगवान श्री कृष्ण ने श्लोक २-८ तक में दिया| भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि हालाकि दोनों विधियाँ एक ही उद्देश्य को प्राप्त करती हैं और ईश्वर को इससे कोई अंतर नहीं होता कि भक्त ईश्वर के आकार की साधना करे या निराकार ईश्वर की| लेकिन श्री कृष्ण ने यह कहा कि साकार साधना साधना उत्तम, सरल और ज्यादा सफल है| वहीँ दूसरी ओर निराकार ईश्वर की साधना अत्यंत कठिन, समझने में दुर्लभ और कम सफलता देने वाला है| श्री कृष्ण ने कहा कि मनुष्य के भौतिक प्राणी है इसलिए वह सिर्फ भौतिक संरचना या क्रियाओं को ही समझ सकता है| निराकार, अकल्पनीय और अनंत जैसे अव्यय व्याख्याएँ मस्तिस्क और मनुष्य के अंगों के लिए समझना अत्यंत कठिन है| और वैसे अव्यय निकाय की साधना कैसे होगी जिसे समझा ही नहीं जा सकता| अतः निराकार ईश्वर की साधना करने वाले साधक ज्यादातर असफल हो जाते हैं|

श्लोक ९-१२ में भगवान श्री कृष्ण ने भक्ति साधना के विभिन्न तरीकों का वर्णन किया है| एक मनुष्य अपनी शक्ति और व्यवहार के अनुरूप किसी भी तरीके से भक्ति साधना कर सकता है|
श्लोक १३-२० में भगवान श्री कृष्ण ने भक्ति के विभिन्न अवयवों और इसकी सटीक परिभाषा का वर्णन किया है| अक्सर हम यह मान लेते हैं कि पूजा पाठ, मंत्र जाप आदि से ही ईश्वर की भक्ति की जाती है| सत्य तों यह है कि एक मनुष्य जो सभी जीवों के प्रति दया का भाव रखता है, जीवों की भलाई के लिए तत्पर रहता है और दूसरों के सुख दुःख में शामिल होता है वह ईश्वर का ज्यादा प्रिय भक्त होता है| इसी प्रकार श्री कृष्ण ने वैसे सभी गुणों का वर्णन किया है जिससे भक्ति की साधना में उत्तम स्थान और जो श्री कृष्ण को प्रिय है|


अध्याय अभी तैयार नहीं क्योंक श्लोकों क्योंकि विषय वस्तु अभी तैयार नहीं| जैसे ही होगा यहाँ पर पर्दर्शित किया जायेगा |
अध्याय अभी तैयार नहीं क्योंक श्लोकों क्योंकि विषय वस्तु अभी तैयार नहीं| जैसे ही होगा यहाँ पर पर्दर्शित किया जायेगा |
अध्याय अभी तैयार नहीं क्योंक श्लोकों क्योंकि विषय वस्तु अभी तैयार नहीं| जैसे ही होगा यहाँ पर पर्दर्शित किया जायेगा |
अध्याय अभी तैयार नहीं क्योंक श्लोकों क्योंकि विषय वस्तु अभी तैयार नहीं| जैसे ही होगा यहाँ पर पर्दर्शित किया जायेगा |
अध्याय अभी तैयार नहीं क्योंक श्लोकों क्योंकि विषय वस्तु अभी तैयार नहीं| जैसे ही होगा यहाँ पर पर्दर्शित किया जायेगा |
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