अध्याय10 श्लोक17 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 10 : विभूति योग

अ 10 : श 17

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्‌ ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥

संधि विच्छेद

कथं विद्याम् अहं योगिंन् त्वां सदा परिचिन्तयन्‌ ।
केषु केषु च भावेषु चिंतयः असि भगवन् मया ॥

अनुवाद

हे परमेश्वर(भगवान), किस प्रकार मैं योगी(आपकी भक्ति का आतुर) आपको जानूँ और आपके गुणों को कैसे अपने मन के भावों में धारण करू?

व्याख्या

यह श्लोक श्रीमद भगवद गीता ही नहीं बल्कि पूर्ण सनातन शास्त्रों में एक अति महत्वपूर्ण श्लोक है और एक बहुत बड़े प्रश्न का उत्तर देता है| यह श्लोक साकार और सगुण साधना को स्थापित करता है|

श्री कृष्ण की महिमा और उनके गुणों की अनन्तता को जानकर अर्जुन ने यह स्वीकार किया कि श्री कृष्ण को पूरी तरह से कोई नहीं जान सकता मनुष्य तों क्या देवता और दानव भी श्री कृष्ण की महिमा को नहीं जान सकते |

श्री कृष्ण अनंत, अपरम्पार और सभी भौतिक गुणों के परे हैं| लेकिन एक मनुष्य शक्ति, बुधि और शक्तियों में सीमित है और हर प्रकार से गुणों के अधीन है, फिर एक मनुष्य कैसे भगवान श्री कृष्ण को कैसे जाने| अनन्त, अनादि,अपरम्पार, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान आदि ऐसे अवयव गुण है जिसे पढ़ा तों जा सकता है, इसे समझा या जाना नहीं जा सकता| अगर मनुष्य ईश्वर को समझ और जान ही न पाए तों ईश्वर की साधना कैसे करे? यही प्रश्न अर्जुन ने श्री कृष्ण से किया है इस श्लोक में| अर्जुन ने यह आशय व्यक्त किया कि श्री कृष्ण तों अनन्त, अनादि, अपरम्पार हैं लेकिन यह तों वे गुण हैं जो समझे और जाने ही नहीं जा सकते| फिर एक मनुष्य ईश्वर की साधना कैसे करे?

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य का मस्तिस्क अंगों के द्वारा अनुभव किये गए गुणों को ही ग्रहण कर सकता है, जैसे मनुष्य कुछ देखता है, कुछ सुनता है, कुछ स्पर्श करता है, कुछ चखता है आदि| इन अनुभव को ही मनुष्य जान सकता है, समझ सकता है और अपने मन के भावों में धारण कर सकता है| जो मनुष्य के अनुभव में नहीं मस्तिस्क उसको किसी भी प्रकार से समझ नहीं सकता |

अगर कोई मनुष्य की साधना करना चाहे तों उसे अपने मस्तिस्क में ईश्वर की कोई न कोई छवि तों चाहिए| बिना ईश्वर की किसी छवि, रूप, या गुण को जाने कोई भी साधना संभव ही नहीं|

इस श्लोक में प्रश्न के उत्तर में भगवान श्री कृष्ण ने फिर इस अध्याय के शेष श्लोकों में अपने विभिन्न रूपों अर्थात विभूतियों का वर्णन किया है| इस प्रश्न के उत्तर से अपने आप ही सगुन उपासना की उपयोगिता सिद्ध हो जाती है| बिना ईश्वर की छवि,आकार आदि के मनुष्य ईश्वर की साधना नहीं कर सकता| व्यक्ति किसी न किसी रूप में मूर्ति पूजा करता ही है चाहे वह इसे कोई भी नाम दे दे|