अध्याय10 श्लोक18 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 10 : विभूति योग

अ 10 : श 18

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्‌ ॥

संधि विच्छेद

विस्तरेण आत्मनः योगम् विभूतिम् च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिः हि श्रृण्वतः नास्ति मे अमृतम्‌ ॥

अनुवाद

हे जनार्दन! अपनी योगशक्ति और विभूतियों(रूपों) को पुनः विस्तार से कहें | आपकी अमृतमय वाणी को सुनते कभी मेरा हृदय नहीं अघाता (मेरी तृप्ति नहीं होती) (अर्थात इक्षा होती है कि आपकी अमृतमय वाणी को सुनते ही जाएँ)

व्याख्या

पिछले श्लोक में अर्जुन ने श्री कृष्ण से यह आग्रह किया कि श्री कृष्ण अपने उन गुणों और रूपों का वर्णन करें जो एक साधारण मनुष्य समझ पाए और आत्मसात कर पाए| क्योंकि श्री कृष्ण के दैवीय गुण अनन्त, अनादि और मनुष्य की मस्तिस्क के समझ के परे है | ऐसे स्थिति में मनुष्य श्री क्रिशन की साधना कैसे करे| इसलिए अर्जुन ने यह आग्रह किया कि श्री कृष्ण अपने उन मधुर गुणों का वर्णन करें जो मनुष्य की बुधि में समा सके|

इस श्लोक में अर्जुन ने उसी आग्रह को पूरा किया | इस श्लोक में अर्जुन ने अपने भाव व्यक्त किये कि श्री कृष्ण की वाणी में वह अमृत है और उनके गुण इतने दिव्य हैं कि जी करता है सुनते ही जाएँ|

इस श्लोक और इसके पहले के कुछ श्लोक के शब्दों के अर्थ के आगे जाएँ तों यह स्पस्ट होता है कि यह सनातन धर्म की एक अति महत्वपूर्ण सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और भक्ति का आधार तय करता है| ईश्वर के गुणों की चर्चा, अध्ययन, गायन आदि भक्ति के मुख्य आधार हैं| ये श्लोक मूर्ति पूजा की आवश्यकता और उपयोगिता को भी सिद्ध करते हैं| जब एक भक्त ईश्वर की मूर्ति को बनाता है तों वास्तव में वह ईश्वर के गुणों को साकार होते देखता है और उसे आत्मसात करता है| मूर्ति के आगे जब कोई भक्त ईश्वर का नाम लेता है, ईश्वर की लीलाओं का वर्णन करता है, ईश्वर की कथाओं को सुनता है, ईश्वर के गुणों का बखान करता है तों वह ईश्वर के गुणों को ग्रहण करता है, आत्मसात करता है और इस प्रकार उसे भक्ति प्राप्त होती है|

साकार साधना अतः ईश्वर के गुणों को आत्मसात करने में मदद करता है|