अध्याय10 श्लोक19 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 10 : विभूति योग

अ 10 : श 19

श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥

संधि विच्छेद

श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्याः हि आत्म विभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्ति अन्तः विस्तरस्य मे ॥

अनुवाद

श्री भगवान बोले हे कुरुश्रेष्ठ! [यद्यपि] मेरे विस्तार की कोई सीमा नहीं, तथापि मैं अपने कुछ मुख्य विभूतियों (रूपों) का तुम्हारे लिए वर्णन करूँगा|

व्याख्या

अपने परम भक्त अर्जुन की पवित्रता और उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर दया के सागर भगवान श्री कृष्ण अर्जुन का आग्रह स्वीकार किया| इसके पहले अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से यह आग्रह किया कि चूँकि भगवान श्री कृष्ण स्वयं अनंत, अनादि और सभी गुणों के परे हैं अतः वह मनुष्यों के सुलभ उन रूपों का वर्णन करें जिसे मनुष्य सरलता से समझ सकें और उनकी आराधना कर सकें|

भगवान श्री कृष्ण ने कहा, कि वैसे तों उनके(श्री कृष्ण) के विस्तार की कोई सीमा नहीं, पूरा ब्रम्हांड ही उनकी शक्ति के विस्तार से बना है लेकिन वह अपने कुछ रूपों का वर्णन करेंगे|

इस श्लोक के बाद अध्याय के अन्त तक भगवान श्री कृष्ण ने फिर अपने विभिन्न रूपों(विभूतियों) कर वर्णन किया है| श्री कृष्ण के विभूतियों का वर्णन होने के कारण ही इस अध्याय का नाम विभूति योग भी कहा गया है| हमे ज्ञात हो कि इस अध्याय में वर्णित विभूतियों का औचित्य भगवान श्री कृष्ण की शक्ति के विस्तार को बताने के लिए है} जिन विभूतियों का वर्णन है उसमे से कई विभूतियाँ साधना के योग्य है दूसरे अन्य जानने और ज्ञान के लिए हैं|