अध्याय10 श्लोक2 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 10 : विभूति योग

अ 10 : श 02


न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥

संधि विच्छेद

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहम अदिहिः देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥

अनुवाद

मेरे आरम्भ(या उत्पत्ति) को न देवता और न ही ऋषि गण जानते हैं क्योंकि सब प्रकार से मैं इन देवताओं और ऋषियों का आदि श्रोत हूँ|

व्याख्या

इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को अपने स्वयं के अनादि अस्तित्व का
रहस्य बता रहे है| श्री कृष्ण के इस श्लोक में यह स्पस्ट किया कि उनके(श्री कृष्ण) के बारे में पूर्ण रूप से कोई भी नहीं जानता, यहाँ तक की देवता और ऋषि गण भी श्री कृष्ण के पूर्व स्वरूप को नहीं जानते क्योंकि स्वय देवता और ऋषियों की उत्त्पति भी भगवान श्री कृष्ण ने की है| देवता और ऋषि अधिक से अधिक श्री कृष्ण के एक या दूसरे स्वरूप को ही जानते हैं|


इस तथ्य को अगर और विस्तार में समझे तों उससे कई गंभीर प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं| ऐसा पाया गया है कि विभीन्न ग्रंथों और ऋषिओं की वाणी में ईश्वर के भिन्न भिन्न वर्णन पाए जाते हैं| और इस कारण कई लोगों को भ्रम भी पैदा होता है|


सत्य तों यह है भिन्नता स्वाभाविक है| कोई देवता अपने स्वभाव और साधना की भिन्नता के कारण ईश्वर के भिन्न भिन्न रूप या गुणों का अनुभव करते हैं | अनुभव की यही भिन्नता उनके व्याख्यान या उनके द्वारा लिखित ग्रंथों में प्रकट होती है|
हमे उस भिन्नता से विचलित नहीं होना चाहिए बल्कि सत्य को जानना चाहिए कि ईश्वर को कोई भी पूर्ण रूप से नहीं जानता और जो जानते हैं वह ईश्वर के भिन्न भिन्न रूप या गुणों को जानते हैं|
बल्कि तुलसी दास ने तों इस तथ्य को स्पस्ट रूप से श्री राम चरित मानस में वर्णित किया है



"हरि अनंत हरि कथा अनंता कहहु सुनहु बहु विधि सब संता"