अ 10 : श 41
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥
संधि विच्छेद
यत् यत् विभूति मत सत्त्वं श्रीमत् उर्जितम एव वा।
तत् तत् एव आवगच्छ त्वं मम तेजः अंश संभवम् ॥
जो कुछ भी(जो जो) कांतिमय, ऐश्वर्य युक्त और विशाल श्रृष्टियाँ है वह सब मेरे एक अंश मात्र से उत्पन्न हुए हैं|