अध्याय10 श्लोक3 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 10 : विभूति योग

अ 10 : श 03

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌ ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

संधि विच्छेद

यो माम अजम् अनादिं च वेत्ति लोक महेश्वरम्‌ ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्व पापैः प्रमुच्यते ॥

अनुवाद

जो मनुष्य इस तत्व को जान लेता है कि, मैं अजन्मा,अनादि हूँ और सम्पूर्ण जगत का ईश्वर हूँ, सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है|

व्याख्या

इसके पहले के श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने यह वर्णन किया कि उनके बारे में कोई भी पूरी तरह से नहीं जानता, देवता भी नहीं क्योंकि वह सबसे पुरातन हैं और सबके रचयिता है| इस श्लोक में भगवान अपने दूसरे गुणों के रहस्य का वर्णन कर रहे हैं|

भगवान श्री कृष्ण ने स्पस्ट किया कि वह अजन्मा और अनादि हैं अर्थात उनका कभी जन्म नहीं हुआ और उनका कोई आरभ नहीं| वह अनादि अर्थात आरंभ से रहित हैं| वह सभी प्राणियों के ईश्वर (God) हैं|

यह तथ्य तों एकदम स्पस्ट है लेकिन कई लोगों में जन्म को लेकर कुछ शंकाएँ पायी जाती हैं| कुछ लोग यह जानना चाहते हैं कि अगर श्री कृष्ण अजन्मा हैं तों फिर श्री राम, श्री बावन, श्री परशुराम और स्वयं श्री कृष्ण के रुपे में माता के गर्भ से उत्पत्ति क्या जन्म नहीं|

इसका उत्तर यह है कि नहीं इनमे से किसी भी रूप में श्री कृष्ण का जन्म नहीं हुआ, बल्कि श्री राम, श्री कृष्ण, श्री बावन, श्री परशुराम आदि के रूप में सभी प्राणियों के ईश्वर श्री विष्णु का अवतार हुआ|
अवतार जन्म से भिन्न प्रक्रिया है| जब ईश्वर अपनी इक्षा से मानव या किसी अन्य शरीर को धारण करते हैं तों इसे अवतार कहा जाता है| अवतार कई रूपों में होता है, कई अवतारों में भगवान विष्णु प्रकट होते हैं और अंतर्धान हो जाते हैं जैसे नरसिंह, मस्त्य,वराह,कक्षप , मोहिनी आदि अवतारों में भगवान विष्णु प्रकट हुए, किसी माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुए| अवतार के दूसरे रुपे में भगवान विष्णु पूरी लीला को समाहित करते हैं और किसी विशेष रूप में प्रकट होने के बजाय माता के गर्भ में ही प्रकट होकर पूरी जन्म की प्रकिया को पूरा करते हैं| दो प्रकार के अवतार में सिर्फ अवस्थाओं का अंतर है प्रक्रिया फिर भी वही रहती है|

अवतार की पूरी परिभाषा को श्रीमद भगवद गीता के अध्याय चार में ही वर्णित किया गया है

यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी एवं समस्त प्राणियों का परमात्मा(ईश्वर) हूँ तदापि [जीवों के कल्याण के लिए] मैं अपनी प्रकृति को अपने अधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूँ(अर्थात लौकिक शरीर धारण करता हूँ)॥
-श्रीमद भगवद गीता 4.6

भगवान अपनी शक्तियों को अपने अधीन करके, नियंत्रित करके अपनी माया से प्रकट होते हैं| इसे अवतार कहा जाता है|
जन्म दूसरी ओर वह प्रकिर्या है जिसमे एक जीव प्राकृतिक शक्तियों और नियम के अधीन माता पिता के अंश से माता के गर्भ में पैदा होता है| जीव का अपने जन्म पर कोई नियंत्रण नहीं होता|

इस श्लोक में अतः भगवान यह स्पस्ट कर रहे हैं कि एक भक्त को ईश्वर के इस गुण को पहले आत्मसात करना चाहिए | ईश्वर के सही गुणों को जानकर ही पवित्र भक्ति प्राप्त की जा सकती है