अध्याय10 श्लोक42 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 10 : विभूति योग

अ 10 : श 42

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌ ॥

संधि विच्छेद

अथवा बहुना एतेन किं ज्ञातेन तव अर्जुन ।
विष्टभ्य अहम् इदं कृत्स्नम् एक अम्शेन स्थितः जगत्‌ ॥

अनुवाद

परन्तु हे अर्जुन ! [विभूति के बारे में] इतने से विस्तार से जानने की आवश्यकता क्या है? इस सम्पूर्ण जगत को मैं अपनी शक्ति के अंश मात्र से धारण करता हूँ|

व्याख्या

अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से उनकी(श्री कृष्ण की) विभिन्न रूपों का वर्णन करने का आग्रह किया ताकि एक मनुष्य के सीमित मस्तिस्क से ईश्वर की शक्ति को समझ सके भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के आग्रह पर अपने कई चर-अचर तथा जीवित-अजीवित विभूतियों का वर्णन किया| परन्तु वास्तव में यह पूरा ब्रम्हांड श्री कृष्ण की शक्ति से ही उत्पन्न हुई और उन सभी वस्तुओं और विभूतियों की संख्या अरबों खरबों में है| उन सभी विभूतियों के वर्णन की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि उनका अलग अलग वर्णन करने में एक लंबा समय लग सकता है और फिर अगर वर्णन कर भी दिया जाए तों वह किसी भी मनुष्य के ग्राह्य सीमा से परे है| और फिर किसी के लिए भी हर एक वस्तु को जानने की आवश्यकता क्या है?

भगवान श्री कृष्ण इस तथ्य को स्पस्ट कर रहे हैं| भगवान श्री कृष्ण ने यह भी स्पस्ट किया कि यह पूरा ब्रम्हांड उनकी शक्ति के एक अंश मात्र से ही निर्मित है अतः अगर पुरे ब्रम्हांड का वर्णन कर भी दिया जाए तो ईश्वर की शक्ति की थाह लेना संभव नहीं| मनुष्य के लिए ईश्वर को जानने और समझने के दूसरे सुगम मार्ग हैं| ईश्वर की लीलाओं का पठन, पाठन; उनकी सुगम विभूतियों के सहारे ईश्वर की साधना आदि ईश्वर को आत्मसात करने सुगम मार्ग हैं| बल्कि ईश्वर द्वारा हर एक युग में अवतार लेना इस प्रयोजन से है| भगवान श्री कृष्ण हर एक युग में अवतार लेते हैं और और उस युग के अनुसार अपनी लीलाएं करते हैं| उनकी लीलाएं की मनुष्य के लिए भक्ति का आधार बनते हैं|