अध्याय10 श्लोक7 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 10 : विभूति योग

अ 10 : श 07

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥

संधि विच्छेद

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सः अविकम्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः ॥

अनुवाद

जो [मनुष्य] मेरी दिव्य विभूतियों और गुणों को तत्व से जान लेता है,वह अटल भक्ति प्राप्त करता है इसमे कोई संशय नहीं|

व्याख्या

श्रीमद भगवद गीता और दूसरे सभी ग्रंथों एम् भक्ति तों सर्वोत्तम माना गया| भक्ति ईश्वर को प्राप्त करने का सबसे निर्णायक मार्ग है| लेकिन उससे भी अधिक भक्ति आनंद और रस का असीम श्रोत है| दृढ भक्ति प्राप्त करने के बाद भक्त के लिए ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बहुत सुगम हो जाता है|
लेकिन कहना जितना आसान है शायद दृढ भक्ति का प्राप्त करना उतना आसन नहीं| चूँकि भक्ति बहुत सूक्ष्म अनुभव है जो अक्सर स्पस्ट भी नहीं होता| वहीँ दूसरी ओर इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव बहुत प्रबल और स्पस्ट होते हैं| इन्द्रियों का सम्बन्ध भौतिक पदार्थों से होता है इसलिए इन्द्रियों के प्रबल प्रवाह में मनुष्य भौतिक जगत की माया में बंधता है| अगर कोई मनुष्य ईश्वर के प्रति भक्ति का भाव रखता भी हो तों उसके लिए भक्ति को दृढ करना आसान नहीं नहीं होता|
भक्ति को दृढ करने के लिए मनुष्य को उचित उपाय की आवश्यकता पड़ती है| भक्ति को दृढ करने का सबसे उत्तम उपाय है ईश्वर के गुणों को जानना, उनकी लीला के बारे में पढ़ना, सुनना, चर्चा करना| चूँकि ईश्वर सभी पवित्र गुणों के श्रोत है अतः उनकी दिव्य गुणों के बारे में बार बार पढने, सुनने, बोलने आदि से उन दिव्य गुणों का विस्तार हमारे अंदर भी होता है| ईश्वरीय गुणों गुणों का हमारे अंदर विस्तार होने से हम ईश्वर से एकीकर होते हैं| इस श्लोक में इसी विषय का वर्णन है| भगवान श्री कृष्ण यह कहते हैं कि जो मनुष्य उनके विभूतियों, गुणों को ह्रदय में आत्म सात करता है दृढ भक्ति प्राप्त करता है|
ईश्वर से जुडने को ही दूसरे शब्दों में योग कहा जाता है| योग अर्थात जुडना, आत्मा का परमात्मा से जुडने की प्रक्रिया ही योग है|
हमारे सनातन धर्म में लगभग सभी अनुष्ठान, साधना पद्धति, भजन, कीर्तन, प्रवचन आदि सब ईश्वरीय गुणों से जुडने के उपाय हैं| अतः हमे यह प्रयास करना चाहिए कि हम यथा सम्भव ईश्वर की लीलाओ का नियतमा पथ करें} इससे भक्ति दृढ होती है|