अनुवाद
परस्पर [श्रद्धापूर्वक] अपने चित्त को [निरंतर] मुझमे स्थित करके और अपने प्राणों (अर्थात अपनी आत्मा) को मुझमे ही अर्पित करके मेरे गुणों का गान करने वाले [भक्त] सदा संतुष्ट और आनंद विभोर रहते हैं|
व्याख्या
पिछले दो श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने श्रधा और ईश्वर के गुणों का बखान शुद्ध अटू भक्ति के लिए साधन बताये| ईश्वर के प्रति श्रधा और ईश्वर के गुणों का बखान, भजन, कीर्तन आदि पने आप में अति प्रभावशाली हैं| अगर यह दोनों एक साथ हों तों इसके परिणाम अत्यंत सुन्दर और मधुर होते हैं| इस श्लोक में इसी तथ्य का वर्णन है|
अगर ईश्वर के प्रति श्रधा हो और और ईश्वर के गुणों का बखान करता है तों उसका आनद कई गुना अधिक हो जाता है, भक्त भव विभोर और ईश्वरीय आनंद के रस से सराबोर होता है| मन में श्रधा होने से मन शांत और ईश्वर के प्रति एकाग्र होता है, एकाग्र मन से ईश्वर के गुणों का बखान, भजन, कीर्तन आदि करने से मन ईश्वरीय गुणों का प्रभाव बढ़ता है| इस प्रकार श्रधा और भक्ति एक दूसरे के ऊपर सकरात्मक प्रभाव डालते हैं| श्रधा होने से भक्ति अधिक होती है और भक्ति होने से श्रधा बढती है | इस प्रकार श्रधा पूर्वक ईश्वर भजन करने से मनुष्य न सिर्फ अटूट भक्ति बल्कि ईश्वर आनंद के रस में भाव मग्न हो जाता है और सदा संतुष्ट रहता है|