अध्याय10 श्लोक10 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 10 : विभूति योग

अ 10 : श 10

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌ ।
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥

संधि विच्छेद

तेषां सतत युक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌ ।
ददामि बद्धियोगं तं येन माम् उपयान्ति ते ॥

अनुवाद

उन भक्तों को जो मुझको सदा समर्पित हैं और श्रद्धापूर्वक मेरी भक्ति(साधना) करते हैं मैं बुधि का योग प्रदान करता हूँ जिसकी सहायता से वे वे मुझे प्राप्त करते हैं|

व्याख्या

यह श्लोक श्रीमद भगवद गीता ही नहीं बल्कि पुरे सनातन ग्रंथों में एक महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक हैं और एक बहुत बड़े प्रश्न का सटीक उत्तर देता है|

हम सब जानते हैं कि लोग भिन्न भिन्न इक्षाओं की पूर्ति के लिए ईश्वर की साधना करते हैं, पूजा अर्चना करते हैं, परन्तु यह ऐसा नहीं देखा गया कि किसी को किसी वस्तु की इक्षा हो और उसकी पूर्ति के लिए वह मंदिर गया और घर आते ही उसकी इक्षा पूरी हो गई हो?
इसे और और भी सीधे रूप में समझने का प्रयास करें| मान लीजिए किसी व्यक्ति को कार लेने की इक्षा हो और उसके पास पैसे नहीं हो, वह मंदिर जाता है और वह कार के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है| क्या ईश्वर उसे आसमान से कार भेज देंगे क्या ऐसा हुआ है कभी और क्या हो सकता है? नहीं? ऐसा नहीं होता|

तों यहाँ प्रश्न उठता है कि ईश्वर किसी मनुष्य की प्रार्थना का फल को किस रूप में और कैसे देता है?
इस श्लोक में इसी प्रश्न का उत्तर है|

भगवान श्री कृष्ण ने स्पस्ट शब्दों में यह बताया कि प्रार्थना या साधना के फल के रूप में वह इक्षित वस्तु प्रदान नहीं करते बल्कि उसका साधन उपलब्ध कराते हैं| प्रार्थना के फल के रूप में ईश्वर भक्त को उचित बुधि और अनुकूल वातावरण प्रदान करता है जिससे वह भक्त अपने मन वांछित इक्षाओं की पूर्ति कर सकता है |

हालाकि एक समझदार व्यक्ति वही है जो ईश्वर की भक्ति का प्रयोग ईश्वर की प्राप्ति के लिए करे न कि भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए|