अध्याय11 श्लोक18,19 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 18-19

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌ ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्‌ ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्‌ ॥

संधि विच्छेद

त्वम् अक्षरं परमं वेदितव्यं त्वम् अस्य विश्वस्य परं निधानम्‌ ।
त्वम् अव्ययः शाश्वत धर्मगोप्ता सनातनः त्वं पुरुषः मतः मे ॥
अनादि मध्य अन्तम् अनन्त वीर्यम् अनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्‌ ।
पश्यामि त्वां दीप्त हुताश-वक्त्रं स्वतेजसा विश्वं इदं तपन्तम्‌ ॥

अनुवाद

मेरे मत से आप ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात परम ब्रम्ह(परमात्मा) हैं| आप ही सम्पूर्ण जगत के परम आश्रय हैं| आप अविनाशी, शाश्वत(सदा एक समान रहने वाला) और धर्म के रक्षक शाश्वत सनातन पुरुष हैं|
अनंत भुजाओं, अनंत सामर्थ्य(शक्ति) और अनंत सूर्य और चन्द्रमा के समान नेत्रों वाले आपका न आरम्भ, न मध्य और न ही अन्त देखता हूँ| तीव्र उग्र अग्नि के समान प्रज्वलित आपके मुख के तेज से समपूर्ण जगत तापित हो तापित हो रहा है|

व्याख्या