अध्याय11 श्लोक21 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 21

अमी हि त्वां सुरसङ्घा् विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घान: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥

संधि विच्छेद

अमी हि त्वां सुरसङ्घा् विशन्ति केचित् भीताः प्राञ्जलयः गृणन्ति।
स्वस्ति इति उक्त्वा महर्षि सिद्धसङ्घान: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥

अनुवाद

देवताओं के समूह आपमें प्रवेश कर रहे हैं, दूसरे [आपका विशाल रूप देखकर] भयभीत हैं और हाँथ जोड़कर आपका गुणगान कर रहे हैं | महान ऋषि और सिद्ध योगी वेद मंत्रो से आपकी स्तुति कर रहे हैं|

व्याख्या

इस श्लोक से प्रारंभ करके श्लोक #३० तक, भगवान श्री कृष्ण के विषरूप में संहार का दृश्य अर्जुन के सामने प्रकट हुआ| सभी नाशवान पदार्थ और जीव अपनी जीवन लीला समाप्त करके भगवान श्री कृष्ण में समाहित होते दिखते हैं| सबकुछ उनके विशाल रूप में विलीन हों रहा है|

इसके पहले अर्जुन ने देखा भगवान से ही सभी श्रृष्टि उत्पन्न हो रही है, वह उनके निर्माणकर्ता का रूप है| फिर अर्जुन ने देखा पूरी श्रृष्टि और सभी जीव भगवान श्री कृष्ण के विशाल विश्वरूप में ही स्थित है| वह उनके पालनकर्ता का रूप था| अब अर्जुन के सामने भगवान श्री कृष्ण का संहारकर्ता का दृश्य प्रकट हो रहा है|

जैसा अर्जुन ने देखा, देवता, ऋषि और दूसरे प्राणी भगवान के विश्व रूप विलीन हो रहे हैं| कुछ लोगों को यह वर्णन एक पल के लिए अजीब लग सकता है| परन्तु या विचार किया जाए तों निर्माण, यापन और विनाश की यह प्रकिया वास्तविक है| प्रत्येक प्राणी इसी प्रकृति में उतपन्न होता है और इसी प्रकृति में अन्तः विलीन हो जाता है| उत्पन्न होने और नष्ट होने की प्रक्रिय भिन्न होती है लेकिन प्रारंभ और अन्त सभी भौतिक पदार्थों और जीवित शरीर का इसी प्रकृति होता है| यह पूरा ब्रम्हांड और यह पूरी प्रकृति भगवान श्री कृष्ण में ही स्थित है अतः सभी जीवों और पदार्थों का सृजन, यापन और अन्त हर प्रकार से भगवन श्री कृष्ण से और श्री कृष्ण ने होता है| हम इस प्रक्रिया अ आभाष नहीं कर पाते क्योंकि एक समय में हम प्रकृति के एक छोटे से भाग में प्रकृति की एक छोटी प्रक्रिया को ही देख पाते हैं| उसके अलावा हर घटना और प्रक्रिया की एक सामाजिक परिभाषा समाज में तय होती है
हम वहीँ तक समझ पाते हैं| हमारी जिज्ञासा वहीँ से शुरू होकर वहीँ तक समाप्त हो जाती है|

यहाँ पर अर्जुन के सामने जो दृश्य प्रकट हो रहा है वह ब्रम्हांड के वृहत भाग में हो रही बड़ी है जो तीव्र गति से अर्जुन के सम्मुख है|
इसके अलावा इस श्लोक में एक दूसरे तथ्य का भी वर्णन है| अलग अलग जीव अपने अन्त को अलग अलग रूप से ग्रहण करते हैं| देवता शांत भाव से भगवान श्री कृष्ण ने रूप एम् समाहित हो रहे हैं| ऋषिगण अपना अहोभाग्य मानकर भक्ति से भगवान की साधना कर रहे हैं| लेकिन दूसरे जीव भय से व्याकुल होकर त्राहिमाम कर रहे हैं|