अध्याय11 श्लोक24 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 24

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णंव्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्‌ ।
दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥

संधि विच्छेद

नभःस्पृशं दीप्तम् अनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्त विशाल नेत्रम्‌ ।
दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथिता अन्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥

अनुवाद

हे विष्णु! आकाश [की सभी दिशाओं] को छूता हुआ दैदीप्यमान, अनेक रंगों वाले, फैले हुए विशाल मुख और [अग्नि के समान] प्रज्वल्लित नेत्र वाले आपके इस [संहारक रूप] को देखकर मेरी अंतरात्मा तक कांप रही है तथा [भय से व्याकुल] मुझे न धैर्य है और न ही शांति |

व्याख्या

श्री कृष्ण का संहारक रूप प्रकट होना शुरू हुआ, जिसमे अर्जुन ने आकाश हर कोने में फैले हुए विशाल मुख, अनेक रंगों से भरे और और अग्नि के समान नेत्रों वाले विकराल रूप को देखा | इसके पहले के श्लोक में यह वर्णित किया गया कि किस प्रकार तीनो लोकों में जिसने भी यह रूप देखा वह विस्मय से भर गया, दूसरे भयभीत हो गए|

अर्जुन इस श्लोक में अपने मन में स्थित भय को प्रकट कर रहा है| ऐसा विकराल रूप देखकर अर्जुन की अंतरात्मा तक कांप गई|श्री कृष्ण का यह विकराल रूप जो सृष्टि के हर पदार्थ को निगल रहा है, सबकुछ भगवान श्री कृष्ण के रूप में विलीन होता जा रहा है| अर्जुन जैसे एक साधारण मनुष्य के लिए विनाश का यह रूप देखकर धीरज और मन में शांति रखना मुश्किल हो गया | अर्जुन भय से अधीर जो जाता है|