अध्याय11 श्लोक25 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 25

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानिदृष्टैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥

संधि विच्छेद

दंष्ट्रा करालानि च ते मुखानि दृष्टवा एव कालानल सन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगत्-निवास ॥

अनुवाद

नुकीले दांतों वाले आपके विशाल मुख सभी दिशाओं में सृष्टि को नष्ट करने के समान आग उगल रहे हैं| [इसे देखकर] मै दिग्भ्रमित और अशांत हो रहा हूँ| हे जगन्निवास (जगत को धारण करने वाले), देवों के देव मुझपर करुणा करें|


व्याख्या

अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण का यह विकराल संहारक रूप देखा, सभी दिशाओं में व्याप्त नुकीले दांतों से युक्त विशाल मुख अग्नि प्रज्वल्लित कर रही है| ऐसा प्रतीत होता हिया पूरी सृष्टि अभी नष्ट हो जायेगी| सब कुछ श्री कृष्ण के रूप में समां जायेगा या भस्म हो जायेगा|

 ऐसा विकराल रूप देखकर अर्जुन की अंतरात्मा कांपने लगी| उसे समझ नहीं आ रहा कि उसकी नज़रों के सामने क्या हो रहा है? उसका भय और भ्रम से युक्त पूर्ण रूप से अशांत हो जाता है| अर्जुन ने जब श्री कृष्ण के वास्तविक रूप को देखने का आग्रह किया था तों उसे इस बात का आभाष नहीं था कि उसे विनाश का इतना विकराल रूप देखना पड़ सकता है| उसे इस बात का कटनी अंदाज नहीं था कि श्री कृष्ण तों सम्पूर्ण सृष्टि को धारण करते हाँ जिसमे निर्माण है और विनाश भी|

इतना विकराल रूप देखकर तब अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से के सामने त्राहिमाम किया और उनसे आग्रह किया कि वह प्रसन्न होकर उसपर अपनी करुणा(दया) करें|