यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥
संधि विच्छेद
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा अविशन्ति नाशाय समृद्ध वेगाः ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकाः तव अपि वक्त्राणि समृद्ध वेगाः ॥
अनुवाद
जैसे पतंगे नष्ट होने के लिए प्रज्वल्लित अग्नि में वेग से प्रवेश करते करते हैं उसी प्रकार सभी जीव आपके मुखों में प्रवेश कर रहे हैं|
व्याख्या
श्री कृष्ण के विश्वरूप में अर्जुन ने विनाश का जो दृश्य देखा उसका वर्णन कर रहा है| पिछले श्लोक में अर्जुन ने सागर और नदियों की तुलना की| जैसे सभी नदियाँ विभिन्न दिशाओं से आकार समुद्र मी मिलकर विलीन हो जाती हैं वैसे ही सभी जीव भगवान श्री के मुखों में प्रवेश करके विलीन हो रहे हैं|
विनाश की इसी दृश्य को अर्जुन अब दूसरी उपमा के द्वारा वर्णित कर रहा है| जैसे पतंगे प्रज्वल्लित अग्नि में स्वयं प्रवेश करते हैं और नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार सभी जीव भगवान श्री कृष्ण के अग्नि के समान प्रज्वलित नाना मुखों में प्रवेश कर रहे हैं|