अध्याय11 श्लोक30 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 30

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रंभासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥

संधि विच्छेद

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्तत् लोकान् समग्रः वदनैः ज्वलद्भिः ।
तेजोभिः अपूर्य जगत समग्रः भासः तव उग्रः प्रतपन्ति विष्णो ॥

अनुवाद

अपने प्रज्वल्लित तेजोमयी मुखों द्वारा सम्पूर्ण लोकों का ग्रास करते हुए आप जीभ लपलपा रहे हैं| हे विष्णु ! आपका ऐसा उग्र रूप देखकर सम्पूर्ण जगत [भय से] तप रहा है|

व्याख्या

अर्जुन के सामने सृष्टि विनाश का भयावह रूप प्रदर्शित हो रहा है और अर्जुन अपने शब्दों में उसे बखान कर रहा है| जैसे नदियाँ चारों ओर से उमडती हुई समुद्र में विलीन होती है, जैसे पतंगे प्रज्वल्लित अग्नि में प्रवेश करके भस्म हो जाते हैं वैसे ही सारी सृष्टि भगवान श्री कृष्ण के इस विश्व रूप में चारो ओर से विलीन होती दिख रही है|

अग्नि से प्रज्वल्लित सूर्य के सामने तेज वाले हजारो मुख सृष्टि को चारो ओर से ऐसे ग्रास कर रहे हैं जैसे शेर अपने शिआर कोई खाता और फिर जीभ से अपने मुख के आस पास चाटता है|

ऐसा भयंकर और विकराल रूप देखकर सृष्टि सदमे में है, देवता, दानव और जो भी जीव इस रूप के देश रहे हैं भय से व्याकुल हो रहे हैं| उन्हें समझ नहीं आ रहा यह क्या हो रहा है?

अर्जुन के मन की भी वही दशा है, वह भय से व्याकुल हो रहा है|