अध्याय11 श्लोक31 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 31

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपोनमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यंन हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्‌ ॥

संधि विच्छेद

आख्याहि मे कः भवान उग्र-रूपः नमः अस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुम् इच्छामि भवन्तम् अद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्‌ ॥

अनुवाद

हे उग्र रूप, हे देवो में श्रेष्ठ आपको नमन है| आप प्रसन्न हों | हे आदि पुरुष! मैं आपको जानना चाहता हूँ क्योंकिआपकी प्रवृति को नहीं जनता(जान पा रहा) | कृप्या बताएं आप कौन हैं?

व्याख्या

कोई साधारण मनुष्य के दो मृत्यु को देख ले तों ही व्याकुल हो जाता है| यहाँ अर्जुन के सामने विनाश का विशाल दृश्य प्रकट हुआ जिसमे हजारों लाखो जीव प्रतिक्षण श्री कृष्ण के विश्व रूप में विलीन हो रहे हैं, ब्रम्हांड की हर वस्तु श्री कृष्ण के विश्व रूप में स्थित अग्नि से प्रज्वल्लित मुखों में भस्म हो रहे हैं| विनाश की यह लीला देखकर अर्जुन भय और भ्रम से व्याकुल हो गया|

वह बार बार श्री कृष्ण को विभिन्न आदरणीय शब्दों से नमन करने लगा| अभी तक अर्जुन ने जिस श्री कृष्ण को जाना तों और जो अभी सामने दिख रहा है उसमे बहुत अंतर है| श्री कृष्ण कभी अर्जुन के सखा सभी गुरु के समान हमेशा मधुर और कल्याणकारी बाते किया करते थे| विश्व रूप में भगवान श्री कृष्ण में अर्जुन ने सभी देवताओं को देखा, ब्रम्हांड का निर्माण देखा| यह सब कुछ मधुर था, लेकिन यह क्या रूप है, यह क्या है जिसमे ब्रम्हांड का विनाश हो रहा है? अर्जुन भ्रमित हो गया कि श्री कृष्ण के विश्व रूप में उग्र रूप धारी यह कौन हैं| तब अर्जुन ने प्रश्न पूछा|