एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥3॥
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥4॥
संधि विच्छेद
एवम् एतत् यथात्थ त्वम् आत्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुम् इच्छामि ते रूपम् ऐश्वरं पुरुषोत्तम ॥3॥
मन्यसे यदि तत् शक्यं मया द्रष्टुम् इति प्रभो ।
योगेश्वर ततः मे त्वं दर्शया आत्मानम् अव्ययम् ॥4॥
अनुवाद
हे परमेश्वर! [अपने ऐश्वर्य का] जैसा आपने वर्णन किया निश्चय ही [आपका प्रताप] वैसा ही है| अतः हे पुरुषोतम! आपके उस ऐश्वर्य-रूप देखने की मेरी इक्षा हो रही है| (3)हे प्रभु! अगर आप समझते हैं कि मैं आपके ईश्वरीय रूप को देखने के योग्य हूँ तों हे योगेश्वर! अपने अविनाशी स्वरूप को प्रकट करें|(4)
व्याख्या
पिछले अध्याय उसके पहले के अध्यायों में में भगवान श्री कृष्ण ने यह वर्णित किया कि यह पूरा ब्रम्हांड ही उनकी शक्ति से निर्मित और स्थित है तथा सभी चर और अचर जीव उनकी ही ईश्वरीय शक्ति और स्वरूप के विस्तार से उत्पन्न हुए हैं| श्री कृष्ण ने यह भी वर्णित किया कि उनके वास्तविक स्वरूप को कोई भी नहीं जानता क्योकि सभी ऋषि और देवता भी उनकी शक्ति से उत्पन्न हैं| तब अर्जुन को उनके स्वरूप के बारे में जानने की इक्षा जागृत हुई और अर्जुन ने श्री कृष्ण ने अपने स्वरूप का वर्णन करने का आग्रह किया| अर्जुन के आग्रह को स्वीकार करते हुए भगवान श्री कृष्ण ने तब अर्जुन को अपनी विभूतियों का वर्णन किया जिसमे श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि भगवान श्री कृष्ण एक ही साथ हजारों और करोडो रुर्पों में व्याप्त हो सकते हैं| श्री कृष्ण ने फिर अर्जुन के लिया अपनी कई विभूतियों का रवर्णन किया|
उनकी विभूतियों का शाब्दिक वर्णन सुनने के बाद में अर्जुन के मन भगवान श्री कृष्ण की अनंत रूप को नेत्रों से देखने की इक्षा हुई| इन दो श्लोकों में अर्जुन ने अपनी उसी इक्षा को श्री के सम्मुख प्रकट किया|