अध्याय11 श्लोक40 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 40

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वतः एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥

संधि विच्छेद

नमः पुरस्तत् अथ पृष्ठतः ते नमः अस्तु ते सर्वतः एव सर्व ।
अनन्तवीर्य अमितविक्रमः त्वं सर्वं समाप्नोषि ततः असि सर्वः ॥

अनुवाद

अर्जुन ने कहा:
हे अनंत सामर्थ्य, अनंत पराक्रम वाले, आप ही सर्वस्व (पुरे ब्रम्हांड में) व्याप्त हैं और आप ही सबकुछ हैं| हे सर्वेश्वर आपको सामने से, पीछे और सभी ओर से प्रणाम और बार बार प्रणाम है|

व्याख्या

अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण के अनंत रूपों, अनंत विधाओं के संपन्न भगवान के विश्वरूप में अपनी आखों के सामने देखा| भगवान श्री कृष्ण के विश्व रूप में सम्पूर्ण ब्रम्हांड और सम्पूर्ण ब्रम्हांड में भगवान श्री कृष्ण को ही व्याप्त देखा| भगवान की शाकि कि कोई सीमा नहीं, उनके पराक्रम का कोई छोर नहीं दिखता|

अर्जुन के लिए यह पूरा दृश्य अविश्वसनीय और कल्पना के परे था| उसके भाव उसके काबू में नहीं आ रहे थे| आश्चर्य, भय और भक्ति के सभी भाव अर्जुन के मन में उठ रहे थे | सम्पूर्ण ब्रम्हांड के स्वामि, स्वयम परमात्मा उसके सम्मुख हैं देखकर अर्जुन भक्ति से पूर्ण श्री कृष्ण के सामने त्राहिमाम करता है|वह भगवान श्री कृष्ण की चारो ओर से परिक्रमा करते हुए बार बार श्री कृष्ण के चरणों में नतमस्तक होने लगा| अपने भक्ति से पूर्ण भाव को अर्जुन ने इस श्लोक में वर्णित किया|

शब्दार्थ
पुरस्तत् = सामने से, आगे से
पृष्ठतः = पीछे,
सर्वतः = सब ओर से, चारो तरफ
सर्व = सबकुछ
अनन्तवीर्य = अनंत शक्ति वाले, अनंत सामर्थ्य वाले
अमितविक्रमः = अनंत पराक्रम वाले
समाप्नोषि = ढकना, आक्षादित करना