अध्याय11 श्लोक43,44 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 43-44

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्‌।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्‌।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्‌॥

संधि विच्छेद

पिता असि लोकस्य चराचरस्य त्वम् अस्य पूज्यः च गुरुः गरीयान्‌।
न त्वत् समः अस्ति अभ्यधिकः कुंतः अन्यः लोकः त्रयः अपि अप्रतिम प्रभाव ॥
तस्मात् प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वाम् अहम् इशम् इद्यम्।
पिता इव पुत्रस्य सखा इव सख्युः प्रियः प्रियायः अर्हसि देव सोढुम्‌॥

अनुवाद

आप सम्पूर्ण चराचर जगत के पिता, सबके गुरु और परम पूजनीय हैं| हे अप्रतिम(अतुलनीय शक्ति वाले) तीनो लोकों में तुलना में आपके समीप भी कोई दूसरा नहीं फिर आपसे कोई उत्तम कैसे हो सकता है?
एतएव हे प्रभो! मैं दंडवत प्रणाम करते हुए आपसे क्षमा मांगता हूँ| जैसे पिता अपने पुत्र को, एक मित्र अपने मित्र को, प्रिय अपने प्रियतम के दुर्गुणों को क्षमा करता है, हे दयानिधान उसी प्रकार आप मेरे दुर्गुणों को क्षमा करें|

व्याख्या

जैसा कि पूर्व श्लोक में वर्णित है, अर्जुन ने जब अब भगवान श्री कृष्ण का वास्तविक रूप देखा और उनके सत्य को जाना तों उसे आज के पहले खुद के द्वारा किये गए व्यवहार पर ग्लानि हुई|

आज से पहले अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण को एक साधारण मनुष्य मानकर अपने मित्र के समान व्यवहार किया| जैसे एक मित्र दूसरे मित्र से सभी प्रकार की बातें कर जाता है बिना सोचे, वैसे ही अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपना मित्र मानते हुए न जाने क्या क्या बोला होगा, क्या क्या मजाक किये होंगे| अब अर्जुन को यह स्पस्ट हो गया कि श्री कृष्ण ने मानव शरीर में स्वयं सम्पूर्ण लोकों के स्वामि हैं|

अर्जुन अब भगवान श्री कृष्ण को बार बार नमस्कार कर रहा है और श्री श्री कृष्ण से क्षमा प्रार्थना कर रहा है| जैसा पिता अपने पुत्र, एक मित्र अपने मित्र को और एक प्रिय अपने प्रीतम के दुर्गुणों को सहन करता है वैसे ही श्री कृष्ण जो सम्पूर्ण जगत के पिता है अतः वह भी उसके दुर्गुणों को क्षमा करें|