अध्याय11 श्लोक47,48 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 47-48

श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात्‌ ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्‌ ॥
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥

संधि विच्छेद

श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तव अर्जुन इदं रूपं परं दर्शितम् आत्मयोगात्‌ ।
तेजोमयं विश्वम् अनन्तम् अद्यं यत् में त्वत् अन्येन न दृष्टपूर्वम्‌ ॥
न वेद यज्ञा अध्ययनै न दानै न च क्रियाभिः न तपोभिः रुग्रैः।
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वत् अन्येन कुरु-प्रवीर ॥

अनुवाद

श्री भगवान बोले,
हे अर्जुन! तुमपर प्रसन्न होकर अपनी योग की शक्ति से मैंने अपना परम तेजोमय, पुरातन और अनंत विश्वरूप दिखाया जिसे तुमसे पहले किसी और ने नहीं देखा था|
हे कुरुश्रेष्ठ (अर्जुन)! इस लौकिक जगत(मृत्यु लोक) में तेरे अतिरित्क कोई दूसरा न वेद अध्ययन से, न यज्ञ से, न दान से, न कर्मकांड से, और न ही कठिन तप से ही मेरे इस रूप को देख सकता है|

व्याख्या

ऊपर के दो श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने सनातन धर्म के सबसे बड़े रहस्यों में से एक रहस्य का वर्णन किया है| वह रहस्य यह है कि भगवान के रूप का दर्शन सिर्फ और सिर्फ भक्ति से ही किया जा सकता है किसी और विधि से नहीं| किसी दान, किसी तप, किसी यग्य या किसी धार्मिक अनुष्ठान से भगवान के दर्शन तब तक संभव नहीं जब तक मनुष्य में ईश्वर के प्रति भक्ति हो|

हाँ दान, तप, यज्ञ और धार्मिक अनुष्ठान की विधियों द्वारा कोई मनुष्य ज्ञानी हो सकता है, तपस्वी हो सकता है, योगी हो सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है या अपनी इक्षानुसार उच्च लोकों को प्राप्त हो सकता है लेकिन वह ईश्वर की दर्शन फिर भी नहीं कर सकता जबतक कि उसे ईश्वर से भक्ति न हो|
इस प्रकट इन श्लोकों से भक्ति और भक्ति योग की श्रेष्ठता सिद्ध होती है| भक्ति की श्रेष्ठता का वर्णन भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद भगवद गीता में कई स्थानों पर किया है, जैसे अध्याय १८.३५ का यह श्लोक

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
सिर्फ भक्ति के द्वारा ही मेरे वास्तविक तत्व को जाना जा सकता है|
अथवा
सिर्फ मेरा भक्त ही मेरे वास्तविक स्वरूप को जान सकता है|
--18.55

इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने यह भी स्पस्ट किया कि जिस विश्वरूप को भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के सामने प्रकट किया वह आज से पहले कभी भी किसी के सामने प्रकट किया| इस रूप को प्रकट करने के लिए भगवान श्री ने अपनी योगमाया की शक्ति का प्रयोग किया और अपनी अनंत शक्तियों को इस प्रकार से नियंत्रित किया ताकि उनका अनंत रूप इस लोक की सीमाओ में प्रदर्शित हो सके| भगवान श्री कृष्ण तीन गुणों और लौकिक जगत की सीमाओं से परे हैं और इस लौकिक जगत में प्रकट होने के लिए भगवान को अपनी सभी शक्तियों को नियंत्रित करके लौकिक जगत की सीमाओं में सीमित करना पड़ता है| अवतार के समय भी यही प्रक्रिया होती है, जैसा अध्याय ४ में वर्णित है

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥
मैं अपनी प्रकृति को अपने अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ(अर्थात लौकिक शरीर धारण करता हूँ)॥
--श्रीमद भगवद गीता 4.6