अध्याय11 श्लोक52 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 52

श्रीभगवान उवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः॥

संधि विच्छेद

श्रीभगवान उवाच
सुदुर दर्शनं इदं रूपं दृष्टवान असि यत् मम ।
देवाः अपि अस्य रूपस्य नित्यं दर्शन आकाङ्क्षिणः॥

अनुवाद

श्री भगवान बोले
मेरे जिन रूपों के तुमने दर्जो कियेवह अत्यंत दुर्लभ हैं | देवता भी इन रूपों को देखने के लिए लालायित रहते हैं[परन्तु देख नहीं पाते]|

व्याख्या

श्री कृष्ण का विश्वरूप देखकर अर्जुन भय औरआश्चर्य से व्याकुल हो गया था| श्री कृष्ण अब अपने मनुष्य रूप में बापिस आ गए और अर्जुन को सांत्वना देते हुए कहा कि उसे अधीर नहीं होना चाहिए बल्कि मन में श्रधा और विश्वास रखते हुए श्री कृष्ण ने इन रूपों को मन में धारण करना चाहिए-श्लोक#49. क्योंकि श्री कृष्ण के यह रूप अत्यंत दुर्लभ हैं| देवता भी श्री कृष्ण का वास्तविक रूप देखने के लिए लालायित रहते हैं| बद बड़े ऋषि जन्म जन्मांतर तपस्या करते है फिर भी उन्हें इस दुर्लभ रूप के दर्शन नहीं होते| अतः अर्जुन को इसे अपना सौभाग्य मानना चाहिए|