अध्याय11 श्लोक53,54 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 53-54

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥

संधि विच्छेद

नाहं वेदैः न तपसा न दानेन न च इज्यया।
शक्य एवं विधः द्रष्टुं दृष्ट्वान् असि मां यथा ॥
भक्त्या तु अनन्यया शक्य अहम् एवं-विधः अर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥

अनुवाद

तुमने [अभी] मेरे जिस रूप को देखा उसे ने वेद अध्ययन से, न तप से, न दान से, और न यज्ञ के अनुष्ठान से ही देखा जा सकता है|
लेकिन हे परन्तप(अर्जुन)! अनन्य भक्ति के द्वारा मुझे तत्व से जाना सकता है, मेरे रूप को देखा जा सकता है और फिर मुझे प्राप्त किया जा सकता है|
अथवा
लेकिन हे परन्तप(अर्जुन)! मनुष्य अनन्य भक्ति से मेरे तत्व को जान सकता है, मेरे स्वरूप के दर्शन कर सकता है और फिर मुझे प्राप्त कर सकता है|

व्याख्या

एक बार फिर इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने भक्ति योग की प्रधानता और सनातन धर्म के सबसे बड़े रहस्यों में से एक का वर्नंत किया है| इसी अध्याय में पहले और श्रीमद भगवद गीता में कई स्थान पर भगवान श्री कृष्ण ने भक्ति योग की श्रेष्ठता का उद्घाटन किया है|

भगवान श्री कृष्ण ने यह पूर्ण रूप से स्पस्ट किया कि उनका अर्थात ईश्वर के दर्शन भक्ति के सिवाय किसी अन्य साधन से संभव नहीं| न वेदों के अध्ययन से, न तप से और यज्ञ एक अनुष्ठान से ही ईश्वर के दर्शन संभव है| सिर्फ और सिर्फ भक्ति से ही ईश्वर के तत्वों को जाना जा सकता है और उनके स्वरूप के दर्शन किया जा सकता है| भगवान श्री कृष्ण ने यहाँ पर एक और रहस्य का भी वर्णन किया कि सिर्फ उनका भक्त ही उनके लोक में जा सकता है और अनंत काल के लिए उनके चरणों में स्थान पा सकता हैकोई ज्ञानी, कोई योगी या कोई तपस्वी नहीं|

यहाँ पर फिर कोई यह प्रश्न पूछ सकता है, अगरसिर्फ भक्ति से ही ईश्वर कप प्राप्त किया जा सकता है तों क्या योग के दूसरे मार्ग व्यर्थ हैं|
उत्तर है, नहीं योग के दूसरे मार्ग व्यर्थ नहीं| योग की किसी विधि जैसे कर्म योग(यज्ञ का अनुष्ठान), राज योग(तप योग) या ज्ञान योग की साधना से मानुष मोक्ष को प्राप्त कर सकता है और जन्म मरण के बंधनों से मुक्त हो सकता है| लेकिन मोक्ष की प्राप्ति और ईश्वर की प्राप्ति दोनों भिन्न हैं| जो ईश्वर के भक्त होता है वह ईश्वर के लोक में निवास करता है जहाँ वह ईश्वर के नित्य दर्शन कर सकता है और अनंत सुख की प्राप्ति करता है| हा

इस विषय पर सलाह यह दी जाती है और जैसा कि अध्याय ५ में भगवान ने स्पस्ट भी किया है कि एक साधक को चाहे वह किसी भी योग के मार्ग का अनुसरण करे उसे ईश्वर में भक्ति रखते हुए करना चाहिए | उससे उसकी साधना आसन होती है और ऐसा करके वह ईश्वर को प्राप्त कर सकता है| अतः योग की किसी भी विधा का पालन करें ईश्वर में भक्ति अवश्य रखें| योग की साधना का यह सबसे उत्तम विधि है|