संधि विच्छेद
मत्-कर्म-कृत मत्-परमः मत्-भक्तः सङ्ग वर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स माम् इति पाण्डव ॥
अनुवाद
हे पांडव(अर्जुन)! जो [मनुष्य] मुझे सर्वस्व मानकर मेरी भक्ति करता है, जो आसक्तियों से मुक्त है और जो सभी जीवों के प्रति स्नेह का भाव रखता है वह निःसंदेह मुझे प्राप्त करता है|
व्याख्या
यह श्लोक इस अध्याय का अंतिम श्लोक है| इसके पहले के कई श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने भक्ति की महत्ता का वर्णन किया और स्पस्ट किया कि उनको(श्री कृष्ण) को वास्तविक रूप में उनका भक्त ही जान सकता है, देख सकता है और उनके धाम में अनंत काल के लिए निवास कर सकता है| किसी अन्य साधन से ईश्वर को देखना और प्राप्त करना संभव नहीं|
इस श्लोक में भी भगवान श्री कृष्ण भक्ति की श्रेष्ठता को सुनिश्चित कर रहे हैं| लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इस श्लोक में भगवान की भक्ति की परिभाषा भी स्थापित की है| भगवान श्री कृष्ण ने भक्ति के तीन मुख्य आयामों का वर्णन किया, वह हैं
१. ईश्वर अर्थात श्री कृष्ण ने अटूट भक्ति
२. भौतिक आसक्तियों का त्याग और
३ सभी जीवों का सम्मान
इनमे से किसी एक भी आयाम के अपूर्ण रहने से भक्ति पूर्ण नहीं हो सकती| कोई व्यक्ति ईश्वर का तों अटूट भक्त हो लेकिन दूसरे जीवों के प्रति उसके मन घृणा या अवहेलना का भाव हो तों उसकी भक्ति शुद्ध नहीं| और इसी प्रकार कोई ईश्वर का भक्त तों हो लेकिन भौतिक आसक्तियों से मुक्त नहीं हो पाया हो तब भी उसकी भक्ति अधुरी रह जाती है|
लेकिन यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि ईश्वर की सर्व प्रथम है | और अगर मनुष्य में दूसरी कमजोरियां हों तब भी उसे ईश्वर की भक्ति करते रहना चाहिए क्योंकि भौतिक आसक्तियों और दूसरे दुर्गुणों से मुक्ति का उपाय भी भक्ति ही है|