अध्याय11 श्लोक7,8 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11 : विश्व रूप दर्शन

अ 11 : श 07-08

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्‌ ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥7॥
न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ॥8॥

संधि विच्छेद

इह एकस्थं जगत कृत्स्नं पश्य अद्य स चर अचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यत् अन्यत द्रष्टुम् इच्छसि॥7॥
न तु मां शक्यसे द्रष्टुम् अनेन एव स्व चक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योग् ईश्वरम् ॥8॥

अनुवाद

हे गुडाकेश(अर्जुन)! अखिल ब्रम्हांड और [ब्रम्हांड के] सभी चराचर(चर औरु अचर) प्राणियों तथा [ब्रम्हांड में स्थित] कुछ अन्य भी जिसे देखने की तुम्हारी इक्षा को हो को एक ही स्थान पर मेरे शरीर में अपने सम्मुख देखो| (7)लेकिन अपने इन नेत्रों से तुम मेरे [विश्वरूप] को नहीं देख सकते इसलिए मैं तुम्हे दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ जिससे तुम रहस्यमयी [विश्वरूप] स्वरूप को देख सको|(8)

व्याख्या

पिछले श्लोक से आगे कहते हुए भगवान श्री कृष्ण अपने दिव्य स्वरूप का वर्णन करते हुए अर्जुन से कहा कि उनके वास्तविक रुपे में ब्रम्हांड की हर चीज़,प्रत्येक जीव तथा भूत और भविष्य में होने वाली सभी घटनाएँ विदित हैं| उसके अलावा अर्जुन को कुछ भी देखने की इक्षा हो वह सामने प्रकट होगी| सभी कुछ एक ही स्थान पर उनके शरीर में में, उनके विश्वरूप में अविलम्ब दृष्टिगोचर होगी|

लेकिन श्री कृष्ण ने फिर यह स्पस्ट किया कि उनका विश्वरूप मनुष्य के भौतिक नेत्रों से देखना संभव नहीं | तब श्री कृष्ण ने अर्जुन को दैवीय शक्ति युक्त दिव्य दृष्टि प्रदान की जिससे भगवान के विश्वरूप को देखना संभव है|