अध्याय12 श्लोक15 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 12 : भक्ति योग

अ 12 : श 15

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥15॥

संधि विच्छेद

यस्मात् न उद्विजते लोकः लोकत् न उद्विजते च यः
हर्ष अमर्ष भय उद्वेग मुक्तः यः स च मे प्रियः॥15॥

अनुवाद

जिससे इस विश्व को कोई उद्येग (हानि, समस्या या आपत्ति) नहीं, और जिसे इस विश्व से कोई उद्वेग नहीं (शिकायत, समस्या या आपत्ति नहीं), उल्लास, ईर्ष्या, भय और उद्वेग से मुक्त है-वह [भक्त] मुझे प्रिय है।
अथवा
जिससे विश्व के किसी जीव को कोई आपत्ति नहीं और जिसे विश्व की किसी जीव से कोई आपत्ति नहीं, जो सांसरिक भोग विलास, ईर्ष्या, भय और उद्वेग से मुक्त है-वह [भक्त] मुझे प्रिय है।
अथवा
जिससे यह विश्व निरस्त नहीं और जिसके लिए यह विश्व निरस्त नहीं, जो सांसरिक भोग विलास, ईर्ष्या, भय और उद्वेग से मुक्त है-वह [भक्त] मुझे प्रिय है।

व्याख्या

पिछले श्लोक से आगे इस श्लोक मे भगवान श्री कृष्ण दूसरे श्रेष्ठ मनुष्यों का वर्णन कर रहे हैं।
श्रेष्ठ मनुष्यों के लिखे वर्णित वे गन इस प्रकार हैं

१. वह जिससे इस विश्व को उद्वेग नहीं
उद्वेग का अर्थ होता है अनियंत्रित अवस्था। जब यह मनुष्य के मन के लिए प्रयोग होता है तो गुस्सा, भ्रम, चिंता और शोक की अवस्था को इंगित करता है।
जब यह शब्द समाज या विश्व के लिए प्रयोग होता है जैसा इस श्लोक मे हुआ है तो उसका अर्थ होता है, अस्थिरता ।
इस वक्तव्य का तात्पर्य यह है की वैसा मनुष्य जो इस विश्व में ऐसा कुछ नहीं करता जिससे इस विश्व के किसी जीव, समाज, वर्ण या वातावरण को किसी प्रकार की हानि नहीं होती या उसके कर्मो से विश्व में किसी को कोई समस्या पैदा होती हो।

२. जिसे इस विश्व से कोई उद्वेग नहीं
यहाँ पर उसी "उद्वेग" शब्द का मनुष्य के लिए होता है। कोई ऐसा मनुष्य जिसे इस विश्व से कोई उद्वेग नहीं का तात्पर्य यह है कि वह मनुष्य जो इस विश्व से घृणा नहीं करता या जो इस विश्व की प्राकृतिक व्यवस्था, उसमे रहने वाले जीवों और विश्व के वातावरण को किसी नकारात्मक रूप मे नहीं देखता।
साधारण रूप से इसका अर्थ यह कि वैसा मनुष्य जो इस विश्व, इसमे स्थित जीवन और प्रकृति को सम्मान करता हो।

३. जो हर्ष , अमर्ष, भय और उद्वेग से मुक्त है
इस श्लोक मे हर्ष, अमर्ष का एक साथ प्रयोग हुआ है। अमर्ष का अर्थ होता है दूसरों का सुख देखकर दुखी हो, अतः हर्ष का यहाँ पर अर्थ निकलता है जो अपने सुख से ही हर्षित हो, और चूँकि यहाँ पर अमर्ष शब्द का प्रयोग हुआ है तो इससे हर्ष का एक इसका सापेक्षिक अर्थ इस प्रकार निकालता है कि जब कोई दूसरों के मुकाबले अधिक सूखी यह धनी और वह इस बात का उल्लास मनाये।

श्री कृष्ण न यह स्पस्ट किया कि दूसरों का विकास देखकर दुखी होना और दूसरों के मुकाबले अपने विकास देखकर उल्लास मानना श्रेष्ठ गुणों में नहीं आते| जो मनुष्य इस प्रकार के हर्ष और अमर्ष से मुक्त है वह एक सच्चा भक्त होने का भागी है.

इस पंक्ति में फिर भय और उद्वेग का प्रयोग हुआ है| भय का अर्थ तो स्पस्ट है| उद्वेग का अर्थ है जिसका मन अस्थिर हो | मनुष्य में यह मानसिक अस्थिरता कई कारणों से आ सकती है| कुछ साधारण कारण है वासना, द्वेष, गुस्सा, ईर्ष्या आदि। एक श्रेष्ठ मनुष्य के लिए भय और उद्वेग मानसिक दुर्गुणों का त्याग करना चाहिए।
जो इन दुर्गुणों से मुक्त है वह एक सच्चा भक्त होने का भागी है और श्री कृष्ण का प्रिय है|