संधि विच्छेद
यः न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभ अशुभ परित्यागी भक्तिमान् यः स मे प्रियः॥
अनुवाद
जो न हर्षित होता है, न द्वेष करता है, जो न चिन्ता करता है न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ का त्याग कर सकता है और भक्ति से पूर्ण है वह मुझे प्रिय है।
व्याख्या
पिछले श्लोक से आगे इस श्लोक मे भी मनुष्यों की उन उत्तम श्रेणियों का वर्णन किया गया है जो श्री कृष्ण को प्रिय हैं। मनुष्यों की उन श्रेणियों का वर्णन इस प्रकार है
1 जो न हर्षित होता है, न द्वेष करता है
यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है की “हर्ष “ शब्द का प्रयोग हुआ है जो साधारणतया एक सकारात्मक गुण है इसलिए किसी को यह भ्रम हो सकता है की एक सकारात्मक गुण का त्याग अपेक्षित क्यों?
वास्तव मे यहाँ पर हर्ष शब्द का प्रयोग यहाँ अकेले नहीं बल्कि दूसरे श्बद “द्वेष”(ईर्ष्या) के साथ हुआ है, “यः न हृष्यति न द्वेष्टि “ । द्वेष एक बहुत ही नकारात्मक गुण है लेकिन द्वेष एक ऐसा गुण है जिसे अगर कोई मनुष्य धारण करे तो उसे एक विशेष किस्म का सुख या हर्ष प्रदान करता है । अर्थात भले ही हर्ष का होना साधारण स्थिति मे अच्छी बात है लेकिन यही हर्ष अगर द्वेष (ईर्ष्या) से उत्पन्न हो तो वह गलत है। यहाँ पर उसी हर्ष का उल्लेख है जो द्वेष से उत्पन्न होता है। द्वेष और द्वेष से उत्पन्न हर्ष दोनों ही खराब हैं और एक उत्तम मनुष्य को इनका त्याग करना चाहिए।
2. जो न चिन्ता करता है न कामना करता है
इस वाक्यांश मे भी दो शब्दों का एक साथ प्रयोग हुआ है,” न शोचति न काङ्क्षति”। इन दो शब्दों का शाब्दिक अर्थ है “न चिंता करता है न कामना करता है”। यहाँ पर भी एक शब्द, चिंता करना, पूर्ण नकारात्मक है और दूसरा श्बद “कामना करना” नकारात्मक भी हो सकता है और सकारात्मक भी। ईश्वर की चरणो की कामना सकारात्मक है, वहीं दूसरी ओर भौतिक वस्तुओं और भोग विलास की कामना नकारात्मक।
पहला शब्द यहाँ पर “चिंता करना है” अतः स्वतः ही कामना का अर्थ भोग विलास की कामना से होता है जो नकारात्मक है। इस वाक्यांश मे दूसरा आध्यात्मिक तथ्य भी सिद्ध होता है वह यह की भौतिक वस्तुओं और भोग विलास की कामना क्यों गलत है। भौतिक वस्तुओं और भोग विलास की कमाना से मनुष्य स्वतः ही चिंता का शिकार होता है या हो सकता है। इससे यह सिद्ध होता है की भौतिक कामनाएँ दुखों का कारण है और जो मनुष्य भौतिक कामनाओं मे लिप्त होता है वह दुखों से बच नहीं सकता। भौतिक कामनाओं का सीधा संबंध दुखों से है।
अतः भोग विलास की कामना और इससे जुड़ी चिंताओं का त्याग करना उत्तम है।
3. शुभ और अशुभ का त्याग कर सकता है
इस वाक्यांश मे भी दो शब्दों का प्रयोग एक साथ है, शुभ अशुभ, और दोनों को त्याग करने की बात की गयी है। अशुभ त्याग करना तो समझ मे आता है लेकिन कई लोगों को यह भ्रम हो सकता है की शुभ का त्याग करने का क्या अर्थ?
शुभ और अशुभ बहुत विस्तृत शब्द है इनका प्रयोग कर्म, कर्म के फल और कामनाओं और व्यवहार मे होता है। अशुभ का त्याग तो हर हाल मे होना स्वाभाविक है लेकिन शुभ कर्मो और शुभ व्यवहार का त्याग नहीं हो सकता हाँ कर्मों के फल अगर शुभ भी हो तो आध्यात्मिक उन्नति के लिए उनका त्याग होना चाहिए। इस वाक्यांश मे उसी कर्म फल के त्याग की बात है। कर्म का फल चाहे शुभ हो या अशुभ उनकी कामना का त्याग करना चाहिए। त्याग का अर्थ यहाँ सन्यास और दान के अर्थ मे भी है। वह जो अपनी प्रिय वस्तु भी दान करने की क्षमता रखता है, महान होता है और श्री कृष्ण का प्रिय है।
4. भक्ति से पूर्ण है
जो व्यक्ति भक्ति से पूर्ण है वह स्वतः ही श्री कृष्ण का प्रिय है। इस वाक्यांश मे “भक्तिमान्” शब्द का प्रयोग है। इसके दो अर्थ हैं 1. जो भक्ति से पूर्ण है 2. जो मेरा भक्त है
दोनों ही अर्थ उचित है और लगभग एक ही निष्कर्ष देते हैं।
मनुष्यों की यह सभी श्रेणियाँ उत्तम हैं और श्री कृष्ण के प्रिय हैं।