समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गाविवर्जितः॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥
संधि विच्छेद
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मान अपमानयोः।
शीत उष्ण सुख दुःखेषु समः सङ्गाविवर्जितः॥
तुल्य निन्दा स्तुति मौनी सन्तुष्टः येन केन चित्।
अनिकेतः स्थिर मतिः भक्तिमान मे प्रियः नरः॥
अनुवाद
जो शत्रु और मित्र , मान और अपमान, सर्दी और गर्मी तथा सुख और दुःख मे समान बना रहता है और जो सभी आसक्तियों से मुक्त है| जो निंदा और बड़ाई में अपने व्यवहार को संतुलित रखता है (तुल्य होता है ), जो [विपरीत परिस्थिति में] शांत रहता है और [अपनी मिहनत से अर्जित धन में] संतोष रखता है,जो निवास स्थान से बंधा हुआ नहीं है जिसकी बुद्धि स्थिर है और जो भक्ति में संलग्न है,वह मुझे प्रिय है।
व्याख्या
इन दो श्लोको मे भगवान श्री कृष्ण ने पुनः श्रेष्ठ मनुष्यों की कुछ श्रेणियों का वर्णन किया है। लेकिन सबसे महत्व पूर्ण श्रेणी मे उन मनुष्यो का वर्णन है जो जीवन की हर परिस्थिति मे अपने व्यवहार को संतुलित रखने मे सफल होते है। मनुष्य का जीवन है तो उसमे सुख भी है, दुख भी है। मित्र भी हैं शत्रु भी हैं। यह विविधता मनुष्यों के कारण ही नहीं मौसम और वातावरण के कारण भी है। सर्दी भी है गर्मी भी है।
जो मनुष्य इन सभी विविधताओं मे अपना मानसिक और शारीरिक संतुलन बनाने मे सफल होता है वह एक श्रेष्ठ मनुष्य है।
इसके आगे भी भगवान श्री कृष्ण कुछ और गुणो का वर्णन कराते हैं। जैसे
मौनी-मौनी का अर्थ होता है चुप रहना शांत रहना। यहाँ पर इस शब्द का अर्थ है जीवन से शिकायत नहीं करना, विपरीत समय मे भी शोर, शिकायत या जीवन के प्रति निराश नहीं होना।
संतोष—संतोष का अर्थ होता है, अपनी मिहनत से अर्जित किए हुए धन मे अपने जीवन का निर्वाह करना। दूसरे शब्दों मे इसका अर्थ ईमानदार होना भी होता है।
अनिकेत—किसी स्थान से नहीं बांधना। मनुष्य को यह मानना चाहिए की निवास स्थान कोई जरूरी नहीं स्थायी हो, आज यहाँ है, कल कहीं और हो सकता है।
स्थिर मति -- मति का अर्थ बुद्धि । स्थिर मति का अर्थ हुआ स्थिर बुद्धि।
भक्तिमान – जो भक्ति मे संलग्न हो
अतः ऊपर मे वर्णित सभी गुण एक श्रेष्ठा मनुष्य की पहचान हैं और वह सभी मनुष्य जो इन गुणो को धारण करते हैं वह श्री कृष्ण को प्रिय हैं।