श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
संधि विच्छेद
श्रीभगवानुवाच
मयि अवेश्य मनः ये मां नित्य-युक्ता उपासते ।
श्रद्धया परय उपेतः ते मे युक्ततमः मताः ॥
ये तु अक्षरं अनिर्देश्यम् अव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगम अचिन्त्यं च कूटस्थम् अचलं ध्रुवम् ॥
सन्नियम्य इन्द्रिय-ग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति माम् एव सर्वभूतहिते रताः ॥
अनुवाद
श्री भगवान बोले
मुझमे
एकाग्रचित होकर, अटूट श्रधा(विश्वास) रखते हुए और समर्पित होकर जो [भक्त] निरंतर मेरी उपासना करते हैं वे [सभी भक्तों में] सर्वोत्तम हैं|
परन्तु दूसरे [भक्त] [तप द्वारा] अपनी इन्द्रियों को वश में करते हुए और सभी जीवों के प्रति समभाव रखते हुए वैसे ईश्वर की अवधारणा करके जो बुधि के परे, निराकार,सर्वव्यापी,कल्पनातीत(कल्पना के परे)और नित्य(कभी परिवर्तित नहीं होने वाला) है, उसकी साधना करता है वह भी मुझे ही प्राप्त करता है|
व्याख्या
विषय को भली भांति समझने के लिए श्लोक #२,३ और ४ को एक
साथ पढ़ना चाहिए|
अर्जुन ने पिछले श्लोक में भगवान श्री कृष्ण से प्रश्न पूछा कि कौन सी साधना
उत्तम है १. साकार ईश्वर या ईश्वर के साकार रूप की साधना या २, निराकार ईश्वर
यह ईश्वर के निराकार स्वरूप की साधना|
इन तीन श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने प्रश्न का स्पस्ट उत्तर दिया और
बताया कि साकार ईश्वर की साधना या ईश्वर के साकार रूप की साधना सबसे उत्तम है | या वैसे भक्त
जो ईश्वर की साकार साधना करते हैं वह वे सर्वोत्तम हैं| लेकिन इसके
साथ ही भगवान श्री कृष्ण ने यह भी स्पस्ट किया कि निराकार साधना या ईश्वर के
निराकार गुणों की साधना करने वाले भक्त भी उसी लक्ष्य को प्राप्त करते हैं जिस
लक्ष्य को साकार साधना करने वाले भक्त| अर्थात साकार और निराकार साधना से प्राप्त होने
वाला फल एक ही हैं| दोनों ही प्रकार के भक्त भगवान श्री कृष्ण को ही प्राप्त करते हैं| परन्तु दोनों
में साकार साधना करने वाले भक्त उत्तम होते हैं|
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि साधना या पूजा पाठ की सभी विधियों में
मूर्ति पूजा की विधि उत्तम है| यह क्यों उत्तम है इसका उत्तर भगवानअगले श्लोक
में दिया गया है|
यहाँ पर हमे यह ध्यान देना चाहिए कि भगवान श्री कृष्ण ने साकार या निराकार
दो अलग ईश्वर की परिभाषा नहीं दी है बल्कि दो प्रकार के भक्तों का उनकी साधना
पद्धति के अनुसार विभाजन है| और साकार साधना को बताने के लिए श्लोक में
भगवान ने स्वयं के पूजने वाले भक्तों का वर्णन किया है, अर्थात स्वयं
श्री कृष्ण ही ईश्वर हैं| चूँकि श्री कृष्ण भगवान विष्णु का मानव अवतार हैं और स्वयं ईश्वर हैं| अतः जो भक्त
भगवान श्री कृष्ण की आराधना करता है वह स्वतः ही उस श्री कृष्ण की जो मानव स्वरूप
में हैं, जो वसुदेव और देवकी के पुत्र के रूप केमें अवतरित हुए, जिन्होंने
नन्द और यशोदा के घर अपना बचपन व्यतीत किया, जो अर्जुन के साथ कुरुक्षेत्र में हैं और जो
द्वारका के राजा हैं के श्री कृष्ण की आराधना करता है| अवतार रूप में
श्री कृष्ण का एक आकार है, एक स्वरूप है और एक भक्त उस स्वरूप को ही आधार बनाकर अपनी पूरी साधना करता
है| श्री कृष्ण के ऐसे भक्त के लिए किसी ज्ञान, किसी योग
साधना और किसी अन्य प्रकार के तपस्या की आवश्यकता नहीं पड़ती| वह श्री कृष्ण
ली लीलाओं को आत्मसात करता है अपनी भक्ति का आधार बनाता है| ऐसे साकार
साधना करने वाले भक्त साधारण दीखते हुए भी उच्चे योगियों से उत्तम होते हैं और
श्री कृष्ण को प्राप्त करते हैं, ऐसा श्री कृष्ण ने इन श्लोको में स्पस्ट किया| ऐसे कई उदहारण
हमारे पास हैं मीरा, सूरदास, रैदास, चैतन्य महाप्रभु इत्यादी कोई ज्ञानी नहीं थे बल्कि श्री कृष्ण के भक्त थे, परन्तु आज
योगियों में अग्रणी स्थान रखते हैं|
दूसरी ओर निराकार साधना से भी भक्त श्री कृष्ण को ही प्राप्त करता है लेकिन
निराकार साधना समझने में कठिन, पालन करने में दुर्लभ और सफलता में कम होते हैं| इसलिए यह मनुष्य
के लिए उत्तम मार्ग नहीं|