अध्याय12 श्लोक5 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 12 : भक्ति योग

अ 12 : श 05

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌ ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥

संधि विच्छेद

क्लेशः अधिकतरः तेषाम् अव्यक्ता असक्त चेतसाम्‌ ।
अव्यक्ता हि गतिः दुःखं देहवद्भिः अवाप्यते ॥

अनुवाद

उनके लिए जो अव्यक्त [ब्रम्ह] में अपना चित लगाते हैं(अपनी श्रधा रखते हैं) साधना अत्यंत कष्टदायक होता है क्योंकि [मनुष्य जैसे] देहधारी के लिए अव्यक्त को समझ पाना कठिन है|
अथवा
अव्यक्त [ब्रम्ह] में अपना चित लगाना(श्रधा रखना) अत्यंत कष्टदायक होता है क्योंकि [मनुष्य जैसे] देहधारी के लिए अव्यक्त [ईश्वर] की भक्ति करना दुष्कर है|

व्याख्या

इस अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से यह प्रश्न पूछा था कि कौन सी साधना उत्तम है १. साकार साधना या २ निराकार साधना , साकार साधना का अर्थ है एक ऐसा ईश्वर जिसका रूप रंग ज्ञात हो और भक्त ईश्वर के साकार रूपों की साधना करे| निराकार साधना का अर्थ है मनुष्य यह मानता है कि ईश्वर का कोई रूप नहीं और भक्त उसके गुणों के आधार पर साधना करता है|

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के प्रश्नों को उत्तर देते हुए श्लोक २ में यह स्पस्ट किया कि हालाकि दोनों प्रकार की साधना से एक ही फल प्राप्त होते हैं (श्लोक #३,४) परन्तु साकार साधना सर्वश्रेष्ठ है|

इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण यह स्पस्ट कर रहे हैं कि क्यों निराकार साधना उत्तम नहीं| भगवन ने कहा कि निराकार साधना अत्यंत कठिन, कष्टदायक है और ऐसे साधना में प्रगति बहुत कठिन है| इस कथन में सबकुछ एकदम स्पस्ट है लेकिन फिर भी अगर हम चाहें तों इसकी आगे कई प्रकार से इसकी व्याख्या की जा सकती है| सबसे पहली बात जिसका उल्लेख इस श्लोक में किया गया है कि मनुष्य एक देहधारी प्राणी है| मनुष्य में स्थित सभी अंग और मस्तिस्क भौतिक और साकार हैं| मनुष्य कुछ भी समंझने के लिए अपने अंगों और मस्तिस्क का प्रयोग करता है| ऑंखें कुछ देखती हैं, कान कुछ सुनते हैं, जिव्हा कुछ चखती है, नाक कुछ सूंघते हैं त्वचा कुछ स्पर्श करती है | यह सभी अंग फिर मस्तिस्क को सम्बंधित सूचनाएं भेजते हैं जिसे मस्तिस्क समझता है| जो कुछ इन अंगों से हम देख, सुन या स्पर्श नहीं कर सकते उसके लिए कुछ मशीनों की सहायता लेते हैं लेकिन वे मशीन भी हमे ऐसे आंकडे देते हैं जिसे हम देखते हैं, उसको प्रदर्शित कर सकते हैं किसी न किसी रूप में| कहने का अर्थ यह है कि किसी चीज़ को समझने के लिए हम या तों उसे अपने अंगों से अनुभव करते हैं या फिर वैज्ञानिक उपकरणों से ऐसे आंकडे प्रस्तुत करते हैं जो दृष्टिगोचर हो या जिसको मापा जा सके| जिसे हम अनुभव नहीं कर सकते, जिसे माप नहीं सकते वह समझना असंभव नहीं तों अत्यंत मुश्किल है|
यही चीज़ ईश्वर को समझने में भी लागु होती है| जब कोई मनुष्य एक निराकार ईश्वर को समझने का प्रयास करता है तो उसके लिए कुछ भी स्पस्ट कर पाना मुश्किल होता है| वह उस ईश्वर के बारे में पढता है कि ईश्वर अनंत है, सर्व शक्तिमान है, सर्व व्यापी है, परम ज्ञानी है आदि| वास्तविकता तों यह है कि यह सभी गुण अव्यय हैं जिसे पढ़ा तों जा सकता है,क चर्चा भी की जा सकती है लेकिन समझा नहीं जा सकता|
उदहारण के लिए, अनंत का क्या अर्थ है| एक मनुष्य अगर समझना चाहे तों क्या समझेगा? एक साधारण व्यक्ति शायद आकाश या समुद्र की कल्पना करेगा| लेकिन जिस समय भी मनुष्य आकाश या समुद्र की कल्पना करेगा उसी समय वह एक आकार की रचना कर लेगा| अनंत को वह एक आकार के माध्यम से ही समझेगा| लेकिन अब उसके सामने मुश्किल यह है कि जब वह ईश्वर को आकाश के रूप में समझने का प्रयास करेगा तों उसके मस्तिस्क में भ्रम उत्पन्न हो जायेगा|
इसी प्रकार अगर एक मनुष्य सर्व शक्तिमान को समझने के प्रयास करेगा तों वह शायद हिमालय के बारे में सोचे| कोई दूसरा मनुष्य शायद एक बहुत बड़े विशालकाय पहलवान व्यक्ति की कल्पना करे| अर्थात हल हाल में मनुष्य किसी न किसी आकार को ही ग्रहण करता है| यहाँ तक की निराकार को भी कोई न कोई आकार देकर ही समझने का प्रयास करता है| निराकार वास्तव में मनुष्य के समझने की चीज़ ही है| चर्चा के आगे निराकार और ऐसे गुणों का कोई निश्चित आधार नहीं रहता|

यही कारण है कि ईश्वर ही नहीं किसी भी निराकार इकाई को समझना दुष्कर है और जब ईश्वर को कोई समझ ही न पाए तों भक्ति करना भी उसके लिए कठिन होता है| इसी तथ्य की व्याख्या इस श्लोक में की गई है


शब्दार्थ

क्लेशः = दुःख, तकलीफ, परेशानी
अधिकतरः = अधिक, ज्यादा
तेषाम् = उनके लिए
अव्यक्ता = अव्यक्त, निराकार
असक्त चेतसाम्‌ = चित्त लगाने वालों के लिए, मन लगाने वालों के लिए
गतिः= उन्नति करना, फल पाना, सफलता पाना
देहवद्भिः = देह धारियों के लिए, भौतिक जीवों के लिए
अवाप्यते = पाना