अध्याय12 श्लोक6,7 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 12 : भक्ति योग

अ 12 : श 06-07

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥6॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌ ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌ ॥7॥

संधि विच्छेद

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत-पराः ।
अनन्येन एव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥6॥
तेषाम् अहं समुद्धर्ता मृत्यु संसार सागरात्‌ ।
भवामि न चिरात पार्थ मयि अवेशित चेतसाम्‌ ॥7॥

अनुवाद

जो अपने सभी कर्मो के मुझे समर्पित कर मेरे मेरी भक्ति में एकीकार होते हैं(मेरे परायण होते हैं) तथा अनन्य भाव से और योग की विधियों से मेरी उपासना करते हैं, उनको मै इस मृत्युलोक के समस्त प्रभावों से उन्हें मुक्त करता हूँ और संसार रूप भव सागर से पार करता हूँ|


व्याख्या

अर्जुन ने श्री कृष्ण से साकार और निराकार साधना में कौन उत्तम है का प्रश्न पूछा| जिसका श्री कृष्ण ने न सिर्फ स्पस्ट उत्तर दिया बल्कि उसका कारण भी बताया| श्री कृष्ण ने स्पस्ट किया कि हालाकि दोनों प्रकार की साधना के द्वारा प्राप्त होने वाला फल एक ही है परन्तु साकार साधना उत्तम है क्योंकि यह सरल है और इसमे सफल होने के अवसर ज्यादा हैं| निराकार साधना कठिन है और इसमे सफलता प्राप्त करना दुर्लभ है क्योंकि एक निराकार ईश्वर को समझना आसान नहीं|

इस श्लोक भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को और भी सरल मार्ग बता रहे हैं| श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहाँ कि सभी शंकाओं और भ्रम का त्याग कर सिर्फ मेरी (श्री कृष्ण की) साधना करो| जो मनुष्य श्री कृष्ण का अनन्य भक्त होता है, हमेशा अपने मन में श्री कृष्ण को धारण करता है, जीवनकाल में अपने प्रत्येक कर्मो को श्री कृष्ण के चरणों में समर्पित कर और प्रत्येक विधियों द्वारा श्री कृष्ण की उपासना करता है, श्री कृष्ण वैसे भक्त को स्वयं ही मृत्युलोक की सभी दुष्प्रभावों और जन्म मरण की चक्र से मुक्त करके इस संसार रूपी भवसागर से पार करते हैं|

हमे यह ध्यान हो की भागवान श्री कृष्ण ने श्रीमद भगवद गीता में कई स्थानों पर भक्ति की श्रेष्टता का उल्लेख किया और बार बार यह स्पस्ट किया है कि जो भी उनका (श्री कृष्ण) का भक्त होता है उसका मुक्त होना निश्चित है| अगर वह इस जन्म में असफल भी हो जाए तों उसे अगले जन्म में उत्तम शरीर, उत्तम परिवार और वातावरण प्राप्त होता है जहाँ से वह हर हाल में मुक्ति को प्राप्त करता है| अर्थात एक बार जो श्री कृष्ण का भक्त हो जाता है उसका फिर पतन नहीं होता.

भगवान श्री कृष्ण एक श्लोक में यह स्पस्ट किया है

“न में भक्त प्रणश्यति”

मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता|