अध्याय12 श्लोक8 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 12 : भक्ति योग

अ 12 : श 08

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥8॥

संधि विच्छेद

मयि एव मनः आधत्स्व बुद्धि निवेशय
निवसिष्यसि मयि एव अतः ऊर्ध्वं न संशयः ॥8॥

अनुवाद

सिर्फ मुझमे अपने मन को लगाओ और अपनी बुधि को सिर्फ मुझपर स्थिर करो| इस प्रकार तुम सिर्फ मुझे निश्चित ही प्राप्त करोगे, इसमे कोई संशय नहीं|

व्याख्या

भक्ति के कई सस्वरूपों में से भगवान ने सबसे प्रथम और सबसे उत्तम स्वरूप के वर्णन किया| श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अपने मन और बुद्धि को पूर्ण रूप से मुझमे समर्पित कर दो| इस प्रकार तुम हर स्थिति में सिर्फ और सिर मुझे ही प्राप्त करोगे और इसमें लेश मात्र भी कोई संदेह नहीं|

ऊपर के वाक्य में शब्द अपने आप में पूर्ण रूप से स्पस्ट हैं, लेकिनफिर भी सुगमता के लिए इसकी थोड़ी व्याख्या जो जो सकती है करते हैं| श्री कृष्ण ने बताया कि जब कोई मनुष्य अपने आप को पूर्ण रूप से श्री कृष्ण को समर्पित कर देता है, जहाँ उस मनुष्य के मन में श्री कृष्ण के अलावा किसी और का ध्यान नहीं आता, जब बुद्धि में श्री कृष्ण के अलावा कुछ और नहीं सूझता, और न जचता है, तों वह भक्त पूर्ण रूप से श्री कृष्ण को समर्पित है| उस भक्त के लिए श्री कृष्ण के अलावा इस जगत में कुछ और नहीं| उसे श्री कृष्ण के अलावा कुछ और नहीं चाहिए| उसका श्री कृष्ण के अलावा कोई और य कुछ और नहीं| तब ऐसा भक्त पूर्ण रूप से श्री कृष्ण में समर्पित है | ऐसा भक्त फिर हर हाल में श्री कृष्ण को ही प्राप्त करता है|

इस व्याख्या से इत्तर इस श्लोक को हम कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं कि ऐसी भक्ति का क्या अर्थ है? हमारे सामने कई उदहारण हैं| सबसे प्रथम उदहारण तों है श्री हनुमान| उसके अलावा पुराणिक काल से भक्त प्रह्लाद, भक्त ध्रुव का नाम अग्रणी है| अगर हम वर्तमान समय में आयें तों मीराबाई, श्री तुलसी दस, श्री सूरदास, श्री रैदास, श्री चैतन्य महाप्रभु इत्यादि भक्तों के उदहारण| इन्होने अपने आप को पूर्ण रूप से अपने आप को श्री कृष्ण को समर्पित किया| धर्म के इतिहास इनका नाम अग्रणी भक्तों में लिया जाता है| हम इन् महान भक्तों को उदहारण मानकर इसश्लोक का अर्थ समझ सकते हैं|