अध्याय12 श्लोक9 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 12 : भक्ति योग

अ 12 : श 09

अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम्‌ ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥

संधि विच्छेद

अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम्‌ ।
अभ्यासयोगेन ततो माम् इक्षा अप्तुं धनञ्जय ॥

अनुवाद

यदि तुम अपने चित्त को मुझमे स्थिर करने मे सक्षम नहीं हो, तो हे धनंजय योग के [निरंतर]अभ्यास से मुझतक पहुँचने का प्रयास करो।
अथवा
यदि तुम अपने चित्त को मुझमे स्थिर करने मे सक्षम नहीं हो, तो हे धनंजय योग के [निरंतर] अभ्यास से मेरी भक्ति प्राप्त करने का प्रयास करो।

व्याख्या

इसके पहले श्लोक मे भगवान श्री कृष्ण ने भक्ति का पहला और सबसे उत्तम मार्ग बताया। श्री भगवान ने इसके पहले श्लोक मे कहा कि सर्वोत्तम भक्ति तो वह है जब तुम्हारे मन और तुम्हारी बुद्धि मे पूर्ण रूप से मेरा ही स्वरूप हो और कुछ न हो। यह भक्ति वैसी भक्ति है जहां भक्त ईश्वर के साथ एकीकर हो जाता है।

लेकिन वह भक्ति की अवस्था सर्वोत्तम और अत्यंत दुर्लभ है। एक लौकिक प्राणी के लिए जो माया के शरीर मे बंधा है और माया को ही देखता, सुनता और समझता है, उसके लिए इस लौकिक जगत से निरासक्त होना संभव नहीं । इस श्लोक मे श्री कृष्ण यह कह रहे हैं कि अगर किसी वजह से तुम ईश्वर मे अपना मन स्थिर करने मे सक्षम नहीं होते तो निराश मत हो। पवित्र मन से ईश्वर की भक्ति की इक्षा रखते हुए योग का अभ्यास करो। अगर भावना पवित्र है तो प्रयास अवश्य सफल होगा और देर सबेर ईश्वर की वही भक्ति प्रपट होगी जहां ईश्वर और भक्त एकीकर हो जाते हैं।

अगर हम इस श्लोक का और विस्तृत अर्थ लगाएँ को हम यह समझ पाएंगे कि श्री कृष्ण ने मानुष की शारीरिक और मानसिक सीमाओं को स्वतः ही स्वीकार किया है। मनुष्य के लिए त्रुटि करना स्वाभाविक चीज़ है, भक्ति मे भी यह सिधनत लागू होगा है। यह पूर्ण संभव है कि कोई साधक अच्छी भावना रखता हो लेकिन फिर भी सांसरिक कारणो से उसकी भक्ति टूट जाती हो। श्री कृष्ण इन इस श्लोक मे यह आसवस्त किया है कि वैसे भक्त को निराश नहीं होना चाहिए और सच्ची भावना से बार बार योग का अभ्यास करना चाहिए।

यहाँ यह बता दें कि योग एक विस्तृत शब्द है और इसका दर्जनो प्रकार की स्थितियों के के ऊपर यह लागू होता है। कर्म मे भी योग होता है, ताप मे भी योग होता है, ज्ञान मे भी होता है, सन्यास मे भी होता है, साधना और सेवा मे भी योग होता है। यहाँ विषय भक्ति का है अतः यहाँ पर योग का अर्थ उन सभी कार्यों और साधनो से है जिससे ईश्वर की भक्ति सुदृढ़ हो। शास्त्रों का अध्ययन, भजन, कीर्तन, पंजा-अर्चना, अष्टांग योग का अभ्यास सभी इस योग की परिभाषा मे आ जाते हैं। अर्थात वह सभी कार्य, अनुष्ठान जिससे ईश्वर की प्रति प्रगाढ़ हो, भक्ति योग कहलाते हैं। अतः एक भक्त को जो ईश्वर को अपने चित्त मे धारण करना चाहता उसे भक्ति से सबंधित सभी अनुस्थान और प्रयास करने चाहिए। शास्त्रों का अध्ययन, मंदिर आदि मे पुजा, भजन, कीर्तन आदि सबसे सुगम साधन हैं। लेकिन अगर किसी के लिए कोई और साधन भी जिसका वर्णन यहाँ या दूसरे जगह नहीं किया गया है वह भी ठीक है। उदेश्य की पूर्ति ज्यादा आवश्यक है, किसी भक्त को अगर किसी पेड़ के नीचे बैठकर ही ईश्वर मे ध्यान दृढ़ होता है तो वह भी सर्वथा उचित है। कहने का अर्थ है कि जिस किसी साधन से भक्ति दृढ़ हो वह भक्ति योग है। भक्त को बिना शंका किया उसका अभ्यास करना चाहिए।