अध्याय12 श्लोक10 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 12 : भक्ति योग

अ 12 : श 10

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥

संधि विच्छेद

अभ्यासे अपि असमर्थः असि मत्कर्म परमः भव ।
मत्-अर्थम् अपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धं अवाप्यसि ॥

अनुवाद

अगर तुम योग का अभ्यास करने मे भी असमर्थ हो तो फिर अपने सभी कर्मो को मुझे अर्पित कर दो। मेरे निमित्त(मेरे लिए) कर्म करते हुए तुम [भक्ति की ]सिद्धि प्राप्त कर लोगे।

व्याख्या

इस श्लोक मे भगवान श्री कृष्ण ने सनातन धर्म के सबसे गूढ सिद्धांतों मे से एक का वर्णन किया है। यह वह सिधान्त है जिसका वर्णन कम हॉट है और विद्वानो की चर्चाओं मे भी गौण रहता है।
श्री कृष्ण ने इस श्लोक मे किया की बिना साधना किए, बिना पुजा पाठ किए और बिना भजन कीर्तन किए भी भक्ति मे सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
श्री कृष्ण ने पहले दो श्लोकों मे बताया की सबसे उत्तम भक्ति तो वह है जब मनुष्य अपने मन और बुद्धि मे ईश्वर को हमेशा धारण करे। कुछ भाग्यशाली मनुष्यों मे यह गुण पूर्व जन्मो के प्रताप के कारण जन्म से होता है। दूसरे मनुष्य जिनके लिए इस प्रकार के भक्ति स्वाभाविक नहीं वह योग की सतत साधना से वही उत्तम अवस्था प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन अगर किसी कारण मनुष्य किसी भी प्रकार की भक्ति न कर पाये या भक्ति करना उसके स्वभाव मे नहीं हो तब भी वह मनुष्य भक्ति में सिद्धि प्राप्त कर सकता है।

इस श्लोक में श्री कृष्ण ने बताया कि ईश्वर को समर्पित कर्म साधना के समान है। अगर कोई मनुष्य इस भाव से अपने स्वाभाविक कर्म को करे की वह ईश्वर के लिए यह कर्म कर रहा है तो उसके द्वारा किया गया कर्म साधना बन जाती है। अगर वह मनुष्य हमेशा ही अपने सभी कर्मो को इसी भाव से करे तो कालांतर में वह भक्ति कि वही सिद्धि प्राप्त कर लेता है जो अन्यथा एक प्रकांड भक्त कर सकता है।

यहाँ पर यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या कोई मनुष्य गलत काम ईश्वर को समर्पित करे तो वह भी साधना हो जाएगी। उत्तर है नहीं। सबसे पहली बात तो यह कि ईश्वर से सम्बंधित कर्मो की जब बात होती है तो कर्त्तव्य, परमार्थ के लिए किया गया कर्म और जीवों के प्रति सेवा के भाव से किया गया कर्म ही कर्म की श्रेणी में आते हैं।

इस बात को समझने के लिए हमे ईश्वर और जीवों के बीच के सम्बन्ध को समझना आवश्यक है, अध्याय ६ और अध्याय १० में भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया है प्रत्येक जीव श्री कृष्ण की जैविक शक्ति ब्रम्ह से निर्मित है, प्रत्येक जीव के हृदय में श्री कृष्ण जीवन की शक्ति के रूप में विद्यमान रहते हैं

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
हे गुडाकेश(अर्जुन)! मै सभी जीवों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ
--Ch10:Sh20

भगवान श्री कृष्ण ने तो यहाँ तक कहा जो प्रत्येक जीव मे श्री कृष्ण ने दर्शन करता है वह श्री कृष्ण से दूर नहीं होता, समीप होता है

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
जो मुझे सबमे और सबको मुझमे देखता है मै उससे दूर नहीं होता है वह मुझसे दूर नहीं होता।
--Ch6:Sh30

अतः सभी जीवों में जब हम उस ईश्वर की छवि मानकर उन जीवों के कल्याण के लिए भी कर्म करें तो वास्तव में वह कर्म साधना के रूप में ईश्वर(श्री कृष्णा ) को ही समर्पित होती है। इस प्रकार जीव कल्याण के लिए किया गया कोई भी कर्म साधना ही है और उससे भी साधना का ही फल प्राप्त होता है।
यही इस श्लोक में श्री कृष्णा ने स्पस्ट किया है।

इन दो श्लोकों से यह भी स्पस्ट है की कोई भी ऐसा कर्म जिससे किसी जीव की हानी हो ऐसे कर्म की श्रेणी मे नहीं आता।अतः ऐसा कर्म जो किसी दूसरे जीव की हानि करे वह ईश्वर को स्वीकार नहीं।