संधि विच्छेद
अथ एतत् अपि अशक्तः असि कर्तुं मत योगं आश्रितः ।
सर्व कर्म फल त्यागं ततः कुरु यत् आत्मवान् ॥
अनुवाद
अगर तुम मुझमे समर्पित कर्मो को करने मे भी असमर्थ हो तो फिर अपनी आप पर विश्वास रखते हुए(अपनी आत्मा को साक्षी मानकर या आत्मा मे स्थित होकर) फल प्राप्ति की आकांशा को त्याग कर कर्म करो।
व्याख्या
पिछले श्लोक मे भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा, अगर तुम मुझमे अपने मन को स्थित नहीं कर सकते और मुझमे अपने मन को स्थित करने के लिए ध्यान का अभ्यास करने मे भी असमर्थ हो तो फिर अपने सभी कर्मो को ऐसे करो की वह कर्म तुम मुझे समर्पित कर रहे हो।
दूसरे शब्दो मे भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह बताया की उत्तम भक्ति तो यह है जब तुम्हारा मन मुझमे स्थित कर दो। लेकिन वह नहीं हो पाता और किसी वजह से योग का अभ्यास भी नहीं कर सकते , फिर तुम अपनी शक्ति और क्षमता के अनुसार कोई भी कर्म करो, लेकिन वह कर्म ऐसे करो जैसे तुम वह कर्म मेरी सेवा मे कर रहे हो।
अर्थात पूर्व के श्लोक में श्री कृष्ण न यह स्पस्ट किया कि अगर कोई भी मनुष्य किसी भी वजह से अगर ईश्वर के प्रति भक्ति न कर पाए तो उसका कर्म ही भक्ति बन जायेगा अगर वह अपने सारे कर्मो को श्री ईश्वर अर्थात श्री कृष्ण की सेवा में अर्पित कर दे। इस भाव से किया गया कोई भी कर्म साधना बना जाता है।
लेकिन इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने उसके भी आगे और भी सरल मार्ग बताया।
श्री कृष्ण ने कहा कि अगर किसी मनुष्य के मन में ईश्वर के प्रति कोई भाव नहीं आ पाता या ईश्वर पर विश्वास नहीं हो पाता तब भी उस मनुष्य पर दोष नहीं। बिना ईश्वर पर विश्वास के भी एक मनुष्य भक्ति का फल प्राप्त कर सकता है।
भगवान श्री कृष्णा ने इस श्लोक में यह कहा कि अगर तुम्हे ईश्वर पर विश्वास नहीं हो पाता या मन में ईश्वर का भाव नहीं आ पाता तो अपनी आत्मा को साक्षी मानकर या अपने ऊपर विश्वास रखते हुए कर्म फल का त्याग करके बिना अपने लाभ की आकांशा से कर्म करो।
इस वक्तव्य का सरल वाक्यों में यह अर्थ है कि अगर कोई मनुष्य दूसरे जीवों की कल्याण के लिए कोई भी कर्म करता है तो उसके द्वारा किया गया वह कर्म साधना बन जाती है, और उसे वही फल प्राप्त होता है जो ईश्वर के भक्त को प्राप्त होता है.
इस श्लोक में भक्ति के जिस रहस्य का वर्णन किया गया है वह बहुत दुर्लभ है। एक मनुष्य चाहे वह ईश्वर में विश्वास न भी करे लेकिन ऐसा कर्म कर जाए जिससे दूसरों का कल्याण हो जाये तो उसका वह कर्म साधना बन जाता है.. इस सिद्धांत को ही अन्य ग्रंथों में निष्काम कर्म के रूप में जाना जाता है। निष्काम कर्म अपने आप में एक साधना है।
इस श्लोक से यह भी सिद्ध होता है कि कैसे अलग अलग मार्गों से गमन करते हुए कर्म और भक्ति योग के मार्ग एक ही स्थान पर मिल जाते हैं।इसी प्रकार दूसरे योग के मार्गों के साथ भी है।