संधि विच्छेद
श्रेयः हि ज्ञानं अभ्यासात् ज्ञानात् ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात् कर्मफल त्यागः त्यागत् शान्तिः अनन्तरम् ॥
अनुवाद
निश्चय ही ज्ञान अनुष्ठानों(अभ्यास) से श्रेष्ठ है, ज्ञान से से श्रेष्ठ है [ईश्वर मे] ध्यान। लेकिन ध्यान से भी श्रेष्ठ है से भी श्रेष्ठ है फलों का त्याग करके [जीवों के कल्याण के लिए ]कर्म करना- क्योंकि इस प्रकार के कर्म से तदान्तर (कर्म के तत्काल बाद और लंबे समय तक) शांति प्राप्त होती है ।
व्याख्या
भक्ति के विभिन्न साधनो या तरीकों का वर्णन करने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने इस श्लोक मे भक्ति के तरीको की तुलनात्मक श्रेष्ठता का वर्णन किया है। और इस श्लोक मे भक्ति के जिस साधन को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है वह किसी भी साधारण आध्यात्मिक व्यक्ति को आश्चर्य चकित कर देने वाला है क्योंकि जिस साधन को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है वह भक्ति जैसा प्रतीत भी नहीं होता और उसमे ईश्वर की आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती। भक्ति के सिधान्त को समझने के लिए यह श्लोक अत्यंत दुर्लभ और महत्वपूर्ण है।
सबसे पहले उन साधनो को अंतिक करते हैं जिसका इस श्लोक मे वर्णन है।
१ अभ्यास या अनुष्ठान
२ तत्व ज्ञान
३ ईश्वर मे ध्यान
४ कर्म फल का त्याग करते हुए कर्म
भक्ति के इन चार साधनो की तुलना इस प्रकार से वर्णित की गयी है इस श्लोक मे
१ तत्व ज्ञान अनुष्ठानों से श्रेष्ठ है
२ ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है
३ ज्ञान से भी श्रेष्ठ है निष्काम कर्म
अर्थात ईश्वर के प्रति भक्ति का सर्व श्रेष्ठ साधन है कर्मफल का त्याग करते हुए कर्म अर्थात निष्काम कर्म। आश्चर्य यह है की कर्म स्वयम भी भक्ति भी नहीं और इसमे मे ईश्वर तत्व का होना आवश्यक भी नहीं।
एक एक करके इन तुलनाओ का वर्णन इस प्रकार है
१ तत्व ज्ञान अनुष्ठानों या अभ्यास से श्रेष्ठ है
इस श्लोक मे “अभ्यास” शब्द का वर्णन है, अभ्यास एक विस्तृत शब्द है जो भक्ति के अलावा जीवन के दूसरे कार्य कलापों के लिए प्रयोग होता है। लेकिन चूंकि यह विषय भक्ति का है अतः अभ्यास का अर्थ यहाँ है ईश्वर प्राप्ति के लिए किए जाने वाले सभी प्रयास।
इस श्लोक प्रयुक्त अभ्यास का भक्ति के लिए प्रयास ही अर्थ होता है, इसकी पुष्टि श्लोक #9 मे वर्णित शब्द से भी होता है, श्लोक #9 इस “अभ्यासयोगेन” कहा गया है जिसका अर्थ है योग मे अभ्यास, अर्थात ईश्वर प्राप्ति के लिए अभ्यास।
ईश्वर प्राप्ति के लिए यह ईश्वर या देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किए जाने वाले प्रचलित कार्यों मे पुजा, यज्ञ, हवन, तीर्थ, उपवास, जागरण, मंत्रोचर आदि आते हैं। विभीन्न स्थानो और समाजो मे अलग अलग अनुष्ठान किए जाते हैं। ऊपर का श्लोक मे अभ्यास शब्द का प्रयोग ईश्वर प्राप्ति के लिए किए जाने वाले प्रयासों को इंगित करता है।
श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि इस प्रकार के सभी अनुष्ठान उत्तम है लेकिन इन अभ्यासों से उत्तम है ईश्वर, अध्यात्म, आत्मा आदि तत्वो का ज्ञान । मनुष्यों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों की अपनी सीमा है,अधिकतर मनुष्य सामाजिक या पारिवारिक परंपरा के अनुसार अनुष्ठान करते हैं और अधिकतर मामलो मे तो अनुष्ठान का औचित्य तक नहीं समझते।
वही दूसरी ओर एक ज्ञानी मनुष्य हो सकता है ज्यादा अनुष्ठान न करे, पुजा पाठ भी न करे लेकिन उसने शास्त्रों का अध्ययन किया हो, और ईश्वर के तत्व और आध्यात्म के रहस्यों को जानता हो तो वह ईश्वर तक ज्यादा सुगतमा से पहुँच सकता है।
अतः ज्ञान भौतिक अनुष्ठानों से श्रेष्ठ हैं।
2 ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है
ज्ञान भौतिक अनुष्ठानों से श्रेष्ठ अवस्य है परंतु ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है।
इसको समर्थन मे तर्क यह है कि यह आवश्यक नहीं कि एक ज्ञानी मनुष्य दुर्गुणों से भी मुक्त हो जाए। क्योंकि एक ज्ञानी हो या अज्ञानी वह हमेशा ही अंगों और भौतिक इक्षाओं के अधीन होता है। एक ज्ञानी मनुष्य जिसका अपनी वासना, लोभ और क्रोध पर नियंत्रण नहीं वह ज्ञान रखते हुए भी अध्यात्म से दूर हो सकता है। इसके अलावा एक ज्ञानी मनुष्य अभिमान ज्ञान के ही कारण अभिमान का शिकार भी हो सकता है। उदाहरण: रावण बहुत बड़ा विद्वान था लेकिन फिर भी वह पाप कर्मो मे पूर्ण रूप से लिप्त था।
ध्यान की अवस्था ज्ञान से उतम अवस्था है, क्योंकि ध्यान की अवस्था मे मनुस्य को अपने अंगो और मस्तिस्क पर पूर्ण नियंत्रण होता है। बिना अंगों और मस्तिस्क पर नियंत्रण के ध्यान संभव नहीं। जब मनुष्य को ईश्वर मे असीम भक्ति हो, वह योग अभ्यास से अपने अंगों और मस्तिस्क पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर ले तो उसे ध्यान की अवस्था प्राप्त होती है। ध्यान की अवस्था के लिए ज्ञान का होना आवश्यक नहीं, भक्ति, निरंतर योग अभ्यास और आत्म संयम की अवश्यतका होती है, एक कम ज्ञानी या अनपढ़ भी योग और ध्यान के बल पर सिद्धि प्राप्त कर सकता है। अंगो और मस्तिस्क पर नियंत्रण के कारण ध्यान ज्ञान से उत्तम है।
३ ज्ञान से भी श्रेष्ठ है निष्काम कर्म
ध्यान मे सिद्ध मनुष्य निश्चय ही अनुष्ठान करने वाले या ज्ञानी मनुष्य से श्रेष्ठ है। उसको सिद्धि प्राप्त करने के अवसर अधिक हैं। लेकिन एक मनुष्य सिद्धि प्राप्त करे तो वह अपना कल्याण करता है अपने लिए मोक्ष का मार्ग बनाता है, उससे दूसरे मनुष्यों या जीवों का कोई भला हो जाए कोई आवश्यक नहीं।
वहीं दूसरी ओर एक ऐसा मनुस्य है जिसके जीवन का लक्ष्य ही दूसरे मनुस्यों का और जीवों का भला करना है, जो अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता बल्कि अपने जीवन को दूसरों की सेवा के लिए अर्पित कर देता है वह चाहे पुजा पाठ न करता हो, ज्ञानी भी ना हो और न ही ध्यान करता हो फिर भी ईश्वर की नज़र मे वह बाकी तीनों प्रकार के भक्तों से श्रेष्ठ है। इसमे ध्यान देने योग्य बात बात यह है कि दूसरों की सेवा करने के लिए, निष्काम कर्म के लिए मनुष्य को ईश्वर का नाम लाना भी आवश्यक नहीं, अर्थात हो सकता है वह ईश्वर को मानता भी न हो, लेकिन फिर भी अपने कर्मो से दूसरों का कल्याण करने के कारण वह सभी भक्तों से भी श्रेष्ठ है।
इस तर्क के समझने के बाद अगर आप पिछले अध्यायों मे श्री कृष्ण के द्वारा कही गयी कुछ बातों को फिर से पढ़ें:जैसे अध्याय 6 मे भागन ने यह कहा
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
जो [मनुष्य] मुझे सर्वत्र देखता है(अर्थात सभी जीवो में मै व्याप्त हूँ ऐसा जानता है) और सबकुछ मेरे अंदर ही देखता है ऐसा जानता है, मैं उससे दूर नहीं होता और वह मुझसे दूर नहीं होता|
6.30
सनातन धर्म का यह सिधान्त विश्व के सभी धर्मो मे अनूठा है और सार्वभौमिक है। इस सिधान्त से यह भी सिद्ध होता है कि ईश्वर सभी इक्षाओं से मुक्त है, उसने जीवों और मनुष्यों की रचना खुद को पुजा करवाने के लिए नहीं की । भक्ति, योग और साधना जीवों के कल्याण के साधन है और उनका उपयोग जीवों के कल्याण के ध्येय से होना ही अपेक्षित है।