अध्याय13 श्लोक2,3 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 13 : पुरुष और प्रकृति

अ 13 : श 02-03

श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥

संधि विच्छेद

श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रम् इति अभिधीयते।
एतत् यः वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तत् विदः॥
क्षेत्रज्ञं च अपि मां विद्धि सर्व क्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्र क्षेत्रज्ञयो ज्ञानं यत् तत् ज्ञानं मतं मम॥

अनुवाद

#2
इस शरीर को हे कौंतेय(अर्जुन)! क्षेत्र कहा जाता है और जो इस शरीर (क्षेत्र) को जानता है वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है।
अथवा
इस शरीर को हे कौंतेय(अर्जुन)! क्षेत्र कहा जाता है और जो इस शरीर (क्षेत्र) का जो स्वामि है वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है।
#3
हे भारत(अर्जुन)! यह जान लो कि सभी क्षेत्रो (जीवित शरीरों या जीवों) मे क्षेत्रज्ञ मै हूँ। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही परम ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है।

व्याख्या

पिछले श्लोक मे अर्जुन ने प्रकृति और पुरुष से जुड़ी कई विषयों के बार मे प्रश्न पुछा था । इन श्लोकों से लेकर आगे तक पूरे अध्याय मे भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के प्रश्न का उत्तर दिया। इन दो श्लोको मे श्री कृष्ण ने अर्जुन द्वारा कुछ शब्दों अर्थ बताए।
वे शब्द हैं:

1 क्षेत्र
भगवान ने कहा स्पस्ट किया कि एक जीव के शरीर को “क्षेत्र” कहा जाता है।
हालाकि हिन्दी की सामान्य बोलचाल की भाषा मे धरातल के एक छोटे से भाग को “क्षेत्र” कहा जाता है लेकिन अध्यात्म में क्षेत्र जीव के शरीर को ही कहा जाता है।
वास्तव में दोनों में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं, पृथ्वी का एक छोटा सा भाग अंततः इस प्रकृति का एक ही एक छोटा से भाग है, उसी प्रकार शरीर भी इस प्रकृति का एक छोटा सा भाग है. अंतर इतना है कि शरीर की संरचना बहुत जटिल है और पृथ्वी के के छोटे से हिस्से की अपेक्षाकृत आसान। परन्तु दोनों ही इस प्रकृति का एक छोटे से भाग हैं.

२. क्षेत्रज्ञ
"क्षेत्रज्ञ " का शाब्दिक अर्थ होता है "क्षेत्र" को जानने वाला। और चूँकि "क्षेत्र" का अर्थ होता है जीव का शरीर अतः क्षेत्रज्ञ का अर्थ हुआ इस शरीर को जानने वाला।
यहाँ पर पुनः दो और प्रश्न उठते हैं।
१. क्षेत्र अर्थात शरीर को जानने से क्या अभिप्राय है? क्या शरीर के अवयवों को जान लेना शरीर को जानना कहा जा सकता है?
२. वह कौन हो सकता है जो शरीर को जाने या जानने लायक मन जाये।
पहले प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सिर्फ शरीर के अवयवों को जान लेना शायद क्षेत्रज्ञ कहलाने के लिए काफी नहीं क्योंकि फिर एक डॉक्टर से ज्यादा इस शरीर को कोई और नहीं जानता। एक जीव के अंदर शरीर में सिर्फ और सिर्फ भौतिक अवयव नहीं होते, कई अवयव और चेतना, ईर्ष्या, क्रोध आदि होते हैं जिन्हे शरीर के अवयवों के आधार मात्र पर निर्धारित नहीं किया जा सकता।
दूसरे प्रश्न के उत्तर का अलग अलग विद्वानों के ने अलग अलग राय दिए हैं। श्रीमद भगवद गीता की व्याख्या करने वाले तीन मुख्य विद्वानों में श्री माधवाचार्य ने स्पस्ट रूप से कहा कि सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही जीवों को पूर्ण रूप से जान सकता है और सिर्फ वह ही क्षेत्रज्ञ कहलाने योग्य है।

उन्होंने कहा;
क्षेत्रज्ञ का प्रयोग एक जीव के लिए संभव नहीं, क्योंकि क्षेत्रज्ञ वह ही हो सकता है जो एक अविकार और अव्यय हो और तथा जो अपनी इक्षा मात्र से कुछ भी रच सकने के समर्थ हो, जो पूर्ण रूप से जागृत हो और सभी अनुभवों से परे हो।
--श्री माधवाचार्य :

दो विद्वान् श्री आदि शंकराचार्य और श्री रामानुजाचार्य का इस विषय में कोई मत नहीं।
लेकिन एक और विद्वान् श्री प्रभुपाद के अनुसार कुछ परिस्थितियों में एक मनुष्य भी क्षेत्रज्ञ हो सकता है। वह मनुष्य जो अपने आप की पहचान शरीर से न करके आत्मा से करे क्षेत्रज्ञ कहा जा सकता है।
एक और विद्वान् श्री श्रीधर स्वामि का मत श्री माधवाचार्य और प्रभुपाद के मतों का मिश्रण है। उनमे अनुसार एक आत्मा क्षेत्रज्ञ होने का भागी है लेकिन आत्मा स्वयं परमात्मा का अंश है अतः अंतिम अर्थ यही निकालता है कि मात्र परमात्मा ही क्षेत्रज्ञ है:

उन्होंने कहा :
अब अव्यय आत्मा के स्वभाव जो की शरीर के अंदर स्थित क्षेत्रज्ञ का स्वभाव भी है का वर्णन है। क्षेत्रज्ञ के रूप सम्पूर्ण जीवों में व्याप्त यह स्वयं परमात्मा है अपने अंश के रूप में विद्यमान है।
-- श्रीधर स्वामि

एक मनुष्य क्षेत्रज्ञ हो सकता है या नहीं हो सकता है इसपर दो मत हो सकते हैं, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि परमात्मा श्री कृष्ण सभी जीवो में क्षेत्रज्ञ है यह इसी अध्याय के श्लोक #३ में स्पस्ट रूप से वर्णित है.

इस श्लोक में श्री कृष्ण ने कहा :
"हे भारत(अर्जुन)! यह जान लो कि सभी क्षेत्रो (जीवित शरीरों या जीवों) मे क्षेत्रज्ञ मै हूँ।"

एक प्रश्न और शेष रह जाता है कि शरीर को जानने का क्या अर्थ हो सकता है? क्या इसका अभिप्राय सिर्फ जानने से ही है? कई विद्वानों का जिसमे श्री माधवाचार्य प्रमुख है का मत है की इसका वास्तविक अर्थ "स्वामि" होने से है, वह जिसका जीवित शरीर पर पूर्ण अधिकार है। और वह सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही हो सकता है जो सभी जीवों और सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामि है।

३. परम ज्ञान
श्री कृष्ण ने श्लोक #३ में यह स्पस्ट किया कि "क्षेत्र" अर्थात शरीर और "क्षेत्रज्ञ" दोनों के बारे में ज्ञान होना ही पूर्ण ज्ञान है।
शरीर को जानने वाले दो ही इकाई हैं 1 आत्मा 2 परमात्मा(ईश्वर) आत्मा एक शरीर का स्वामि होता है और ईश्वर सभी जीवित शरीरों का। 
एक पूर्ण ज्ञान के लिए अतः प्रकृति अर्थात भौतिक तत्व जिसे जड़ तत्व भी कहाँ जाता है तथा पुरुष अर्थात चेतन तत्व का ज्ञान होना आवश्यक है। दोनों मे से किसी एक का ज्ञान न होने से ज्ञान आंशिक ही कहा जाएगा।