यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
संधि विच्छेद
यं हि न व्यथयन्ति इते पुरुषं पुरुषर्षभ । सम दुःख-सुखं धीरं सः अमृतत्वाय कल्पते ॥
अनुवाद
हे श्रेष्ठ पुरुष(अर्जुन)! जो मनुष्य इनसे [अल्कालिक सुख दुःख के अनुभव से] व्यथित(विचलित) नहीं होते और सुख दुःख में समान बने रहते हैं वे अमृत रूपी मोक्ष के भागी होते हैं|
व्याख्या
सारांश में जीवन की अनन्तता का रहस्य बताने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने दुःख से व्याकुल अर्जुन को सुख और दुःख का रहस्य बताया| भगवान ने कहा कि सुख और दुःख प्राकृतिक शरीर गुण है जो भौतिक जगत और वातावरण के विभिन्न अनुपात में शरीर के ऊपर असर से उत्पन्न होता है|