अध्याय2 श्लोक27 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 2 : सांख्य योग

अ 02 : श 27

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

संधि विच्छेद

जातस्त हि ध्रुवः मृत्युः र्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मात् अपरिहार्ये अर्थे न त्वं शोचितुम् अर्हसि ॥

अनुवाद

जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित हैं और जिसकी मृत्यु हुई है उसका पुनः जन्म भी निश्चित है। और जो अवश्यम्भावी है उसके लिए तुम्हे शोक नहीं करना चाहिए।

व्याख्या

पहले तो भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जीव का सार्वभौमिक सत्य बताया | भगवान ने बताया कि जीव असल में भौतिक शरीर नहीं बल्कि आत्मा है | शरीर तो इस आत्मा का एक आवरण मात्र है वैसे ही जैसे मनुष्यों के शरीर पर वस्त्र होते हैं| आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है|
आत्मा स्वयं अनंत, अजन्मा, शास्वत और नित्य है | कोई भी आत्मा का वध करने के सक्षम नहीं है| चूँकि आत्मा अनंत है इसलिए जीव भी अनंत है | मृत्यु जीव का अंत नहीं बल्कि शरीर का अंत मात्र है| यह तो सार्वभौमिक अध्यात्मिक सत्य है|

लेकिन अगर कोई मनुष्य आत्मा के बारे में ऊपर के तथ्य को न समझ पाए, और जीव को भातिक इकाई, जन्म और मरने वाला ही मान ले, तब भी शोक करने का कोई कारण नहीं है | क्योंकि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु हुई है उसका पुनः जन्म भी निश्चित है। यह अवश्यम्भावी है | फिर जिसका होना तय है उसके बारे में सोचकर शोक नहीं करना चाहि।