अध्याय2 श्लोक31 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 2 : सांख्य योग

अ 02 : श 31

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥

संधि विच्छेद

स्वधर्मम् अपि ही च अवेक्ष्य न विकम्पितुम् अर्हसि ।
धर्म्यात् हि युद्धात् श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥

अनुवाद

एक क्षत्रिय होने के नाते तुम्हे यह ज्ञात होना चाहिए कि एक क्षत्रिय के लिए धर्म की रक्षा(मानवता की रक्षा) के लिए युद्ध करने से उत्तम और कोई अवसर नहीं है| इसलिए तुम्हे [युद्ध करने में] संकोच नहीं करना चाहिए|

व्याख्या

आत्मा और जीवन के रहस्यों को समझाने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को व्यावहारिक और उसके स्वाभाविक कर्तव्य का बोध कराया| भगवान ने अर्जुन को याद दिलाया की वह स्वभाव और अनुभव दोनों से ही एक क्षत्रिय(सैनिक) है | धर्म, मानवता और न्याय की रक्षा के लिए युद्ध करना एक क्षत्रिय का सबसे बड़ा कर्तव्य और एक क्षत्रिय के लिए यह सबसे बड़े गर्व का क्षण है| इसलिए अर्जुन को युद्ध करने में संकोच नहीं करना चाहिए|