अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावा-ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥
संधि विच्छेद
अर्जुन उवाच
कथं भीष्मम् अहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजा-अर्हौ अरिसूदन ॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयः भोक्तुं भैक्ष्यम् अपि इह लोके ।
हत्वा अर्थ कामान् तु गुरून् इह एव भुंजीय भोगान् रुधिर प्रदिग्धान् ॥
अनुवाद
अर्जुन ने कहा:
हे मधुसूदन ! इस युद्धभूमि किस प्रकार मै भीष्म और द्रोण के विरुद्ध वाणों का प्रहार करूँगा? वे दोनों ही मेरे लिए पूजनीय हैं|
इन गुरुओं और महानुभावों(पूजनीय जनो) को मारने के बजाय भिक्षा(भीख) मांगकर जीवन यापन करना ज्यादा उचित है | अपने गुरु जनो को मारकर कौन है जो वैभव की लालसा करेगा? क्योंकि [युद्ध में जीता हुआ] वैसा वैभव निश्चय ही खून से रंगा होगा|
व्याख्या
युद्ध भूमि में जब अर्जुन ने जब मोहित, भ्रमित और दुखी होकर युद्ध करने से इंकार कर दिया, तब भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को याद दिलाया की उसका युद्ध के इस कठिन समय में कर्तव्य का त्याग करना उचित नहीं है और कायरता की पहचान है| लेकिन अर्जुन का भ्रम भगवान श्री कृष्ण की इस बातों से भी दूर नहीं हुआ, उसने अपना तर्क जारी रखा|