अध्याय2 श्लोक52,53 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 2 : सांख्य योग

अ 02 : श 52-53

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥

संधि विच्छेद

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिः व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥
श्रुति विप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधौ अचला बुद्धिः तदा योगम् अवाप्स्यसि ॥

अनुवाद

जब तुम्हारी बुद्धि मोहयुक्त भ्रम को पार कर जायेगी (अर्थात मोह और भ्रम से मुक्त हो जायेगी) तब तुम अभी तक सुने हुए और भविष्य में सुने जाने वाली भांति भांति की बातों से उत्पन्न भ्रम से से मुक्त हो जाओगे |
भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि जब परमात्मा में स्थिर हो जाएगी, अपनी अन्तःकरण में स्थित तब तुम परम योग की अवस्था को प्राप्त होगे|

व्याख्या

पिछले श्लोक में भगवान श्री कृष्ण बताया की बुद्धि योग योग से कर्म की कुशलता प्राप्त की जा सकती है और भौतिक जगत के मोह से मुक्त हुआ जा सकता है| इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण बुद्धि योग की दूसरी उपयोगी बताई| भगवान ने बताया कि जिस मनुष्य की बुद्धि भगवान पर स्थिर हो जाती है वह इस संसार में सभी मोह और भ्रम से मुक्त हो जाता है| इस श्लोक में भगवान ने विभिन्न शास्त्रों की सीमा भी बताई और स्पस्ट किया कि कभी कभी विभिन्न शास्त्रों के विभिन्न रूप में प्रस्तुत होने के कारण और विभिन्न लोगों द्वार विभिन्न रूप से व्याख्या करने के कारण मनुष्यों में भ्रम हो सकता है| लेकिन जिसकी बुद्धि ईश्वर में स्थित हो जाती है वह अपनी आत्मा को जागृत कर लेता है और सभी प्रकार के भ्रम से मुक्त जो जाता है|