अध्याय2 श्लोक58 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 2 : सांख्य योग

अ 02 : श 58

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

संधि विच्छेद

यदा संहरते च अयं कुर्मः अङ्गनी इव सर्वशः ।
इन्द्रियाणि इन्द्रिय-अर्थेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

अनुवाद

जो [मनुष्य] अपने अंगों को [भौतिक कामनाओं से] वैसे ही समेट लेता है[और आत्मा में स्थित हो जाता है] जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट कर अपनी कवच में स्थित हो जाता है, वह स्थितप्रज्ञ है [ऐसा मानना चाहिए]।

व्याख्या

भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन को एक स्थितप्रज्ञ मनुष्य की और गुण बताते हैं| भगवान ने आगे कहा कि जो मनुष्य अपने अंगों पर पूर्ण नियंत्रण रखता है और अपने मन को अपनी आत्मा में स्थापित करने में सक्षम होता है वैसे मनुष्य को स्थितप्रज्ञ मानना चाहिए| श्री कृष्ण ने कछुए का उदहारण दिया| कछुआ आवश्यकता पडने पर अपनी भुजाओं को समेटकर अपने प्रकोष्ठ में स्थित हो जाता है और बाहरी प्रभाव से एकदम मुक्त हो जाता है| वैसे ही एक स्थित प्रज्ञ मनुष्य अपनी अंगों को समेटकर अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है।