अध्याय2 श्लोक66 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 2 : सांख्य योग

अ 02 : श 66

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥

संधि विच्छेद

न अस्ति बुद्धिः अयुक्तस्य न च अयुक्तस्य भावना ।
न च अभावयतः शान्तिः अशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥

अनुवाद

जिसकी बुद्धिईश्वर (अर्थात भगवान श्री कृष्ण ) से विमुक्त है, उसकी न तो बुद्धि और न ही भावना स्थिर हो पाती है | जिसकी भावनाएं स्थिर नहीं होती उसे शांति नहीं मिलती और बिना शांति के सुख कैसे मिल सकता है ?

व्याख्या

पिछले श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने बुद्धि योग अर्थात ईश्वर में बुद्धि को स्थिर करने की महानता बताई थी| जो भक्त ईश्वर को अपने मन में धारण करता है वह अपनी बुधि, मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित करता है और सुख प्राप्त करता है|

इस श्लोक में भगवान ने यह स्पस्ट किया कि जिसका मन ईश्वर की भक्ति ने स्थिर नहीं होता उसका मन अयिन्त्रित हो सकता है| मन के अयिन्त्रित होने से मन की शांति चली जाती है | और जिसका मन अशांत है वह सबकुछ होते हुए भी सुखी नहीं हो सकता|