अध्याय2 श्लोक7 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 2 : सांख्य योग

अ 02 : श 07

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥

संधि विच्छेद

कार्पण्य दोषः उपहत स्वभावः पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढ चेताः ।
यत् श्रेयः स्यात् निश्चितं ब्रूहि तत् मे शिष्यः ते अहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥

अनुवाद

कर्तव्य के प्रति भ्रम [कि युद्ध करना उचित है कि न करना] से उत्पन्न दुर्बलता से मेरा मन सिथिल हो रहा है| मै आपकी शरण में आता हूँ | अपना शिष्य जानकर मेरे लिए जो कल्याणकारी हो कृप्या मुझे बताएं|

व्याख्या

दुःख की भयावता के बारे में सोचकर अर्जुन के मन में अपने दुःख, विषाद और कर्तव्य के प्रति भयंकर भ्रम उत्पन्न हो गया | वह यह नहीं सोच पा रहा था कि क्या उचित है, युद्ध करना या युद्ध न करना| मन में उत्पन्न शोक और विषाद ने अर्जुन के मन तो अत्यंत दुर्बल कर दिया | लेकिन ऐसी शोक की अवस्था में भी उसके अंदर विवेक था | उसने अपने आप को पूर्ण रूप से भगवान श्री कृष्ण के आगे समर्पित कर दिया और उनसे मार्गदर्शन का अनुरोध किया |