संधि विच्छेद
इष्टान् भोगान् हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैः दात्तान् अप्रदाय एभ्यः यः भुंक्ते स्तेन एव सः ॥
अनुवाद
यज्ञ द्वारा प्रसन्न हुए देवता तुम लोगों को जीवन के लिए आवश्यक साधनों कों उपलब्ध कराएँगे । देवताओं द्वारा प्रदित वस्तुओं कों जो मनुष्य दूसरों में विभाजित किये ही सिर्फ स्वयं भोगता है वह एक प्रकार से चोर ही है॥
व्याख्या
पिछले शलोक में भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि सृष्टि, देवताओं और मनुष्यों की रचना भी यज्ञ के द्वारा ही श्री ब्रम्हा द्वारा की गई| देवता मनुष्यों के अभिभावक के समान हैं| मनुष्य यज्ञ या साधना द्वारा उनको प्रसन्न करते हैं और देवता मनुष्यों को भौतिक वस्तुएँ प्रदान करते हैं| इस प्रकार देवताओं और मनुष्यों का निर्धारण किया गया|
इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि मनुष्यों की रचना सामाजिक जीव के रूप में की गई है और इसलिए सहभागिता उनका स्वाभाविक कर्तव्य है| मनुष्यों का यह कर्तव्य है कि देवतों द्वारा प्रदत प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग एक दूसरे के साथ बांटकर करना चाहिए| जो अपने स्वार्थ के लिए प्राकृतिक वस्तुओं को दूसरों में विभाजित किये प्रयोग करता है वह एक हिसाब से चोरी ही है|