संधि विच्छेद
यज्ञशिष्ट अशिनः सन्तः मुच्यन्ते सर्व किल्बिषैः ।
भुञ्जते ते तु अघं पापा ये पचन्ति आत्मकारणात् ॥
अनुवाद
यज्ञ के लिए अर्पित अन्न को यज्ञ उपरांत ग्रहण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष(सन्त) सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं | [अभिमानवश] जो [ईश्वर की अवहेलना कर] सिर्फ अपने शरीर की तृष्णा मिटाने के लिए अन्न पकाते हैं वह पाप को खाते हैं|
व्याख्या
पिछले श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने भौतिक पदार्थों के सहभागिता का वर्णन किया| भौतिक पदार्थ हम देवताओं द्वारा प्रदत्त हैं और सभी मनुष्यों और जीवों के लिए हैं| हमे उनका उपयोग उचित रूप से विभाजित करके करना चाहिए|
इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण भोजन के वितरण की महत्ता को वर्णित कर रहे है| भगवान ने स्पस्ट किया कि हमे सर्वप्रथम अपना भोजन ईश्वर को अर्पित करना चाहिए| ईश्वर को अर्पित किया भोजन पापों से मुक्त हो जाता है| हमे ज्ञात होना चाहिए किए यज्ञ या दूसरे अनुष्ठान में हम इस प्रकार के भोजन को प्रसाद कहते हैं| अगर हम रोज ऐसा करंर तो हम पुण्य ही कमाएंगे|