अध्याय3 श्लोक17 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 3 : कर्म योग

अ 03 : श 17

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥

संधि विच्छेद

यः तु आत्म-रतिः एव स्यात् आत्म-तृप्तः च मानवः
आत्मनि एव च संतुष्टः तस्य कार्यं न विद्यते

अनुवाद

परन्तु जो [मनुष्य] अपनी अंतःकरण(आत्मा) में रम गया है, अपनी अन्तः-करण (आत्मा) में तृप्त है और आत्मा में ही संतुष्ट है उसके लिए इस जगत में करने के लिए कुह शेष नहीं |

व्याख्या

पिछले श्लोक में भगवान ने यह स्पस्ट किया के शास्त्रों में मनुष्यों के कर्तव्य निर्धारित किये गए हैं जिसका पालन करके एक मनुष्य सुखी हो सकता है और अंततः मोक्ष को प्राप्त कर सकता है| लेकिन कर्तव्यों के यह बंधन तो सांसारिक मनुष्यों के लिए हैं|
जो मनुष्य योग और साधना से अपनी आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है और अपनी आत्म में स्थित हो जाता है वह शास्त्र और शास्त्र निर्धारित कर्तव्यों के बंधन से मुक्त हो जाता है| उसके लिए फिर कुछ करना शेष नहीं रहता |